बुधवार, 6 मार्च 2019

परिचय का अंग २६६

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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संतप्रवर महर्षि श्रीदादूदयाल जी महाराज बता रहे हैं कि ::
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*सौंज*
सत्य राम, आत्मा वैष्णौं, सुबुद्धि भूमि, संतोष स्थान,
मूल मन्त्र, मन माला, गुरु तिलक, सत्य संयम,
शील सुच्या, ध्यान धोती, काया कलश, प्रेम जल,
मनसा मंदिर, निरंजन देव, आत्मा पाती, पुहप प्रीति,
चेतना चंदन, नवधा नाम, भाव पूजा, मति पात्र,
सहज समर्पण, शब्द घंटा, आनन्द आरती, दया प्रसाद,
अनन्य एक दशा, तीर्थ सत्संग, दान उपदेश, व्रत स्मरण,
षट् गुणज्ञान, अजपा जाप, अनुभव आचार,
मर्यादा राम, फल दर्शन, अभि अन्तर सदा निरन्तर,
सत्य सौंज दादू वर्तते, आत्मा उपदेश, अन्तर गत पूजा ॥२६६॥
*‘सत्यराम’* - ‘सत्य शब्द ब्रह्म बोधक होने के कारण ‘सत्यराम’ यह पद ग्रन्थ(श्री दादूवाणी) के मध्य में वस्तुनिर्देशात्मक मङ्गल है । तीनों कालों में जिसका बाध न हो और एकरस होने से राम सच्चिदानन्दस्वरूप हैं । इस सच्चिदानन्द स्वरूप राम की आभ्यन्तर पूजा की सामग्री तथा अधिकारी का निरूपण करते है ::
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*आत्मा वैष्णों* - अर्थात् जिसका मन सतत आत्म चिन्तन में डूबा रहता है, वही ‘वैष्णव पूजा का अधिकारी होता है । विष्णुपुराण में लिखा है - जो कुछ भी यहाँ प्रतीत हो रहा है, वह अच्युतभगवत्स्वरूप ही है, उससे भिन्न कुछ नहीं । जो कुछ है वह मैं ही हूँ’ । अत: परमात्मा ही सब कुछ है - ऐसा जानकर भेद के मोह को त्याग दो ।
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आन्तर पूजा के साधन बता रहे हैं -
*सुबुधि भूमि* - सात्त्विकी बुद्धि ही सुबुद्धि है । अत: यह शुद्धबुद्धि ही पूजा साधनपात्र है । जो बुद्धि प्रवृत्ति तथा निवृत्तिमार्ग को, कर्तव्याकर्तव्य, भय अभय और बन्ध मोक्ष को तत्त्वरूपेण जानती है, वही बुद्धि सात्त्विकी है । ऐसी बुद्धि से ही ब्रह्मप्राप्ति होती है । विशुद्ध बुद्धियुक्त, एकान्त और शुद्ध प्रदेश का सेवी, मिताहारी, मन वाणी और शरीर पर संयम रखने वाला, दृढ वैराग्यवान् पुरुष ध्यानयोग द्वारा सात्विक धारणा से अन्त:करण को वश में रखते हुए शब्दादि विषयों का त्याग कर के ही ब्रह्मभाव प्राप्त करने योग्य होता है ।
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*संतोष स्थान* - आशातृष्णा रहित हृदय ही ब्रह्मप्राप्ति का स्थान है । जो ध्यानयोग में युक्त तथा लाभ हानि में सम, मन इन्द्रिय एवं शरीर का निग्रही, परमात्मा में दृढ विश्वास रखने वाला और उसी को अपनी मन-बुद्धि अर्पित कर देने वाला भक्त ही मुझको प्रिय हैं ।"
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*मूल मंत्र* - संसार कारणरूप ब्रह्म मूलमंत्र है । उसी का जप करना चाहिये । अथवा राम या ॐ मूलमन्त्र है, उसी का जप करना चाहिये अर्थात् इन्हीं के द्वारा ब्रह्मोपासना करनी चाहिये ।
तैत्तिरीयोपनिषद् में लिखा है - “ॐ यह ब्रह्म है, ॐ ही सब है ।”
कठोपनिषद् में कहा है - “ॐ यह उपासना के लिये श्रेष्ठ आलम्बन है, ॐ का आलम्बन कर उपासना करने वाला ब्रह्मलोक में भी पूजनीय होता है, अन्य लोकों की बात ही क्या !”
‘मंत्र’ शब्द का अर्थ - मनन करने से तथा सब की रक्षा करने के कारण ‘मन्त्र’ कहलाता है । सबको मानने का नाम ही ‘मनन’ है । संसारी पुरुषों पर अनुग्रह करने को ‘त्राण’ कहते है । यह नारद सूत्र का अभिप्राय है ।

‘राम’ शब्द का अर्थ महारामायण में लिखा है - “जो समस्त संसार को उदर में रखता है तथा भक्तों को अभीष्ट अर्थ प्रदान करता है, वह ‘रा’ का अर्थ हैं ।”
“जो मुक्त पुरुषों को ही प्राप्त है - यह ‘अम’ पद का वाच्य है । ‘रा’ और ‘अम’ यह दानार्थक रा धातु और गत्यर्थ अम् धात से निष्पन्न होते हैं । दोनों शब्दों का समास करने से ‘राम’ शब्द बनता है । इस शब्द का अर्थ हुआ - समस्त जगत् का कर्ता-धर्ता, संहारक एवं मुक्त पुरुषों द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य । “रमन्ते योगिनो यस्मिन्” इस श्रुति से भी योगीजन जिसमें सतत रमण करते हैं, उस सच्चिदानन्द ब्रह्म को ही ‘राम’ कहते हैं ।” अथवा - रमयति सर्वान् लोकान् स्वस्वव्यापारे - इस व्युत्पत्ति से ‘राम’ शब्द का अर्थ है- “समस्त संसार को स्व स्व व्यापार में लगाये रखने वाला, प्रेरणादायक ही राम हैं ।”
“रमण करने वालों में राम सर्वश्रेष्ठ है”_ ऐसा वाल्मीकि मुनि ने भी कहा हैं । *‘राम’ शब्द में ‘र’ अग्निबीज है, ‘आ’ भानुबीज है और ‘म’ चन्द्र बीज है ।* वाडवाग्नि की तरह केवल रकार मात्र का जप करने से साधक के समस्त शुभ-अशुभ कर्म भस्म हो जाते हैं ।”
‘आ’ के भानुबीज होने से, अकार का जप करने वाले वेदशास्त्रों के ज्ञाता हो जाते हैं और ब्रह्मप्रकाश से हृदयस्थ अविद्या का नाश हो जाता है । ‘म’ चन्द्रबीज हैं । जो अमृतपूर्ण मकार का ध्यान करते हैं, उनके तीनों ताप नष्ट हो जाते हैं और उसे अलौकिक शान्ति मिलती है । अथवा - र अ म - ये क्रमशः वैराग्य ज्ञान भक्ति के बीज हैं ।
महारामायण में लिखा : “रकार वैराग्य का हेतु है और अकार ज्ञान का एवं मकार भक्ति का हेतु है । अतः राम के उपासक को वैराग्य, ज्ञान, भक्ति - तीनों की प्राप्ति हो जाती है ।” वहीं यह भी लिखा है - “राममन्त्र सभी मन्त्रों में श्रेष्ठ है । राम नाम से प्रणव(ॐ) की उत्पत्ति हुई है । अतः राम की उपासना ही ब्रह्म की उपासना है ।” राममन्त्र की विवेचना करते हुए किसी साधक ने कहा है- राम में, रकार का अर्थ समग्र ऐश्वर्ययुक्त साकार राम है । मकार का अर्थ जीव है, जो सब प्रकार की दासता में निपुण है । र और म के मध्य जो आकार है वह दोनों की अनन्य एकता का का द्योतक है । राम नाम तीनों वेदों का रूप है । अत: राम नाम में तीनों वेदों का समावेश है । अर्थात राम का उपासक तीनों वेदों के अध्ययन का फल प्राप्त कर लेता है ।
राम की एक-एक उपासना का फल भी महारामायण में बताया है ।
योगी केवल ‘र’ कार की उपासना कर परम पद पा लेते हैं, ज्ञानी आकार की उपासना से मुक्त हो जाते हैं और भक्तजन राम के पूर्ण नाम की, निश्चल मन से उपासना करके पराभक्ति पाकर राम के समीप पहुँच जाते हैं ।”
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*मन माला* - मन की भगवदाकार वृत्ति ही माला है । अतः मन की वृत्ति से ही भगवान् का भजंन करना चाहिये ।
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*गुरु तिलक* - गुरुदेव का यथार्थ उपदेश ही तिलक है । जैसे आस्तिक जन मस्तक पर तिलक धारण करते हैं वैसे ही गुरूपदेश को भी मस्तक पर धारण करना चाहिये ।
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*सति संजम* - मन, वाणी और शरीर से सत्य आचरण करना ही संयम है ।

*सील सुच्या* - ब्रह्मचर्य का पालन ही शुचिता है । लिखा है - आचार-पालन सभी प्राणियों का प्रथम धर्म है । आचार-भ्रष्ट प्राणी पवित्र होने पर भी इह लोक तथा परलोक में नष्ट हो जाता है ।
विष्णुधर्मपुराण में लिखा है - “आचारभ्रष्ट मनुष्य को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते ।” देवी भागवत में लिखा है - हे नारद ! आचारवान् पुरुष ही सदा पवित्र एवं सुखी है । हे नारद ! मैं सत्य सत्य कहता हूँ कि आचारवान् पुरुष ही संसार में धन्य है ।”
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*ध्यान धोवती* - ध्येयाकार वृत्ति ही अधोवस्त्र है ।
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*काया कलस,* - कलस कहते हैं जलपात्र को ।
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*प्रेम जल* - प्रेमजल परिपूर्ण शरीर ही पूजा पात्र ।
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*मनसा मंदिर* - मन ही प्रभु की प्राप्ति का स्थान = मन्दिर है ।
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*निरंजन देव* - निरञ्जन = निराकार ही इष्टदेव हैं ।
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*आतमा पाती* - ‘पाती’ कहते हैं पत्र को । समाहित मन और इन्द्रियाँ ही तुलसीदल के समान हैं ।
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*पुहप प्रीति* - अनन्य प्रेम ही पुष्प है ।
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*चेतना चंदन* - चित्त की सावधानता, चेतना ही चन्दन है ।
विवेकचूड़ामणि में लिखा है- “विषय रूपी जंगल में मन नामक भयङ्कर व्याघ्र रहता है । मुमुक्षु साधक उस जंगल में नहीं जाते । अतः साधक को प्रयत्न करना चाहिये कि उसका मन सदा पवित्र रहे, क्योंकि मन की शुद्धि सहज से ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है ।”
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*नवधा नाम* - इष्टदेव का नाम ही नवधा भक्ति है, क्योंकि नाम-स्मरण करने से ही भक्ति का फल प्राप्त हो जाता है ।
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*भाव पूजा* - उत्कष्ट श्रद्धा(भाव) ही पूजा है, क्योंकि श्रद्धा के बिना पूजा का फल नहीं होता ।
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*मति मात्र* - बुद्धि ही पूजा का पात्र है क्योंकि बुद्धिहीन की पूजा ‘पूजा’ नहीं कहलाती ।
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*सहज समर्पण* - सहज अवस्था में स्वचित्त की स्थिति ही समर्पण भाव है, क्योंकि सहज मन ही ब्रह्मप्राप्ति के योग्य माना जाता है ।
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*शब्द घंटा* - निरन्तर अनाहत नाद का श्रवण ही घण्टा बजना है ।
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*आनंद आरती* - आनन्दानुभव ही ‘आरती’ है ।
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*दया प्रसाद* - भगवान् की असीम दया ही ‘प्रसाद’ है ।
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*अनन्य एकदशा* - अनन्य मन की वृत्ति ही एकाग्रता है ।
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*तीर्थ सतसंग* - सत्सङ्ग ही ‘तीर्थ’ है, क्योंकि सत्संङ्गति में सब तीथों का फल समाविष्ट हो जाता है ।
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*दान उपदेस* - यथार्थ उपदेश करना ही ‘दान’ है ।
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*व्रत सुमिरण* - इष्ट देव का सतत ध्यान ही ‘व्रत’ है, क्योंकि इष्टदेव के स्मरण से ही । सब व्रतों का फल मिल जाता है ।
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*षड गुण ज्ञान* –अमानित्व आदि षड् गुण ही ज्ञान है, क्योंकि गीता में लिखा है - “अमानित्व, अदम्भित्व, अहिंसा, क्षमा, आर्जन(कोमलता) और आचार्योपासना - इन छ: गुणों के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता ।”
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*अजपा जाप* - निरन्तर ‘सोऽहं सोऽहं’ ॐ कार ध्वनि का श्रवण ही ‘अजपा जाप’ है ।
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*अनुभव आचार* - आत्मा का अनुभव ही आचार है ।
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*मर्यादा राम* - राम का अनन्य मन से स्मरण करना ही मर्यादा' है ।
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*फल दर्शन* - ब्रह्म साक्षात्कार ही उपासना का फल है ।
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इन सभी साधनों से आन्तर पूजा होती है । अतः मानस जप के लिये ये सब साधन बताये गये हैं ।
इसी अभिप्राय से अग्नि पुराण में लिखा है - अहिंसा, इन्द्रियनिग्रह, सब प्राणियों पर अनुकम्पा शान्ति, शम, तप, ध्यान तथा सत्य भाषण - ये आठ पुष्प माने गये हैं । इन के सेवन से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं ।
व्रत के विषय में भी लिखा है - क्षमा, सत्य, दया, दान, शौच, इन्द्रियनिग्रह, देवपूजन, अग्निहोत्र सन्तोष चोरी न करना । सभी व्रतों में ये दश प्रकार के सामान्य धर्म हैं ।
शील के विषय में स्कन्दपुराण में लिखा है - “समाज में सर्वत्र शील की प्रधानता है, कुल की नहीं, क्योंकि शील विहीन उत्तम कुल से भी क्या लाभ ? जबकि बहुत से प्राणी हीन कुल में पैदा होकर भी केवल शील का आचरण कर शुभ गति(स्वर्ग) को प्राप्त हो गये । अतः अपने वृत्त(शील) की रक्षा करनी चाहिये, वित्त(धन) की नहीं, क्योंकि धन तो आता-जाता रहता है, लेकिन शील का आचरण बहुत कठिन है । शीलभ्रष्ट प्राणी सदा नष्ट ही होता रहता है” ॥२६८॥
(क्रमशः)

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