शनिवार, 16 मार्च 2019

परिचय का अंग ३०८/३११

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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फल पाका बेली तजी, छिटकाया मुख मांहि ।
सांई अपना कर लिया, सो फिर ऊगै नांहि ॥३०८॥
खाया हुआ वृक्ष का फल फिर नहीं उगता, क्योंकि भक्षण करने से उसके बीज का ही नाश हो जाता है । इसी प्रकार जीव की जब अविद्या नष्ट हो जाती है तब कर्मबीज के नष्ट होने से जीवात्मा का फिर जन्म-मरण नहीं होता । लिखा है-
“जब विवेकरूपी अग्नि से उत्पन्न होने वाले रागादि दोष जल जाते हैं तो फिर उनकी उत्पत्ति ज्ञानी के मन में नहीं होती । जैसे अग्नि में भूंजा हुआ बीज नहीं उगता ॥”
उस परात्पर ब्रह्म को जान लेने के बाद साधक की हृदयग्रन्थि तथा समग्र संशय और कर्म भी नष्ट हो जाते हैं ॥३०८॥
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दादू काया कटोरा दूध मन, प्रेम प्रीति सों पाइ ।
हरि साहिब इहि विधि अंचवै, वेगा वार न लाइ ॥३०९॥
यह शरीर ही भगवान् को दूध पिलाने के लिये पात्र है । मन दुग्ध रूप है । प्रेमा भक्ति ही खांड है । अतः मन रूपी दूध भगवान् को पिलावो । अर्थात् अपने मन को प्रेम से भगवान् की सेवा में लगाओ । लिखा है-
“नूतन एवं सुन्दर मद्य की तरह मनोहर ‘राधा’ नाम है । गाढे दूध की तरह एवं अद्भुत ‘कृष्ण’ यह नाम है । प्रतिक्षण सुन्दर रागरूप हिम से दूध को शीतल कर ‘राधाकृष्ण’ इन दोनों को मिलाकर इनका कीर्तन करो ॥३०९॥”
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टगा टगी जीवन मरण, ब्रह्म बराबरि होइ ।
परगट खेलै पीव सौं, दादू बिरला कोइ ॥३१०॥
हिन्दी-एकाग्र मन से जो मरण पर्यन्त ब्रह्म का साक्षात्कार करते रहते हैं, वे ब्रह्मरूप हो जाते हैं; क्योंकि श्रुति कहती है- “ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्मरूप ही हो जाता है ।” यह साधना अत्यन्त दुर्लभ है ॥३१०॥
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दादू निबरा ना रहै, ब्रह्म सरीखा होइ ।
लै समाधि रस पीजिये, दादू जब लग दोइ ॥३११॥
जब तक द्वैत की निवृत्ति सर्वथा न हो जाय तब तक समाधि में भी साधक को साधनाभ्यास नहीं छोड़ना चाहिये । ब्रह्मज्ञान होने पर उस ज्ञान को दृढ़ करने के लिये भी साधनाभ्यास आवश्यक है । क्योंकि संशय और विपर्यय, जिनको असम्भावना विपरीत भावना भी कहते हैं- ये दोनों ही तत्त्वज्ञान के फल को प्रतिबद्ध कर देते हैं । अतः जिस साधक का मन अभी शान्त नहीं हुआ उसको ज्ञानप्रतिबन्ध रूप बाधक से ज्ञान की रक्षा भी साधनाभ्यास द्वारा करनी चाहिये ।
पराशर ऋषि ने लिखा है-
“जैसे मणि-मन्त्र-औषध से प्रतिबद्ध हुई अग्नि, सुदीप्त और सुदृढ़ होती हुई भी, इन्धन को नहीं जला सकती, वैसे ही सुदीप्त और सुदृढ़ ज्ञान भी संशयादि से प्रतिबद्ध होने से कल्मष(पापकर्म) को नहीं जला सकता ।”
गीता में भी लिखा है-
हे अर्जुन ! भगवद्विषय को न जानने वाला तथा श्रद्धा रहित एवं संशययुक्त पुरुष परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है । उनमें भी संशययुक्त पुरुष के लिये न सुख है, न यह लोक है न परलोक ॥३११॥
(क्रमशः)

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