#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू एक विचार सौं, सब तैं न्यारा होइ ।*
*मांहि है पर मन नहीं, सहज निरंजन सोइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**सर्वंगी पतिव्रत का अंग ६७**
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रज्जब बुद्धि बूटि१ ब्रह्माण्ड पिंड, रम रग रग सब अंग ।
यहु सर्वंगी पति वरत, हरि विछोह दुख भंग२ ॥५॥
जैसे औषधि१ शरीर के सभी अंगों की रग रग में रमती है, वैसे ही बुद्धि ब्रह्माण्ड में रमती है, किन्तु हरि के वियोग का दुःख तो यह सर्वंगी पतिव्रत ही नष्ट२ करता है ।
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रज्जब निज जन नापिगा१, सब दिशि फिरतीं जाँहि ।
वेत्ता२ बंक न बींद३ हीं, फिर घर दरिया४ माँहिं ॥६॥
भगवान् के निजि जन नदियों१ के समान हैं, जैसे नदियाँ सभी दिशाओं में फिरती हुई समुद्र में चली जाती हैं, अपनी वक्र गति से बीच में नहीं रुकतीं, वैसे ही ज्ञानी२जन कर्त्तव्य कर्म करना रूप वक्रता से विद्ध३ होकर बीच में नहीं रुकते, कर्म में विचरते हुये भी सर्वंगी पतिव्रत द्वारा ही परम धाम४ को जाते हैं ।
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त्रिविधि भांति जिव रँग धरे, धनु१ हरि२ देख अकाश ।
एकै ठाहर एक३ सों, अविगत४ आभों५ पास ॥७॥
देखो, आकाश में इन्द्र२ धनुष१ तीन प्रकार का रंग धारण करता है किन्तु रहता बादलों५ के पास एक स्थान में ही है, वैसे ही सर्वंगी पतिव्रतयुक्त जीव कर्म, भक्ति, ज्ञान तीन रंग धारण करता है किन्तु अद्वैत३ निष्ठा द्वारा रहता परब्रह्म४ में ही है ।
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पोसत पहुपों बहु वरण१, अमल२ अकारों३ एक ।
तो भेषों भोला४ न कछु, वेत्ता५ करो विवेक ॥८॥
पोस्त के पुष्प तो बहुत रंग१ के होते हैं किन्तु उसके डोडों से निकलने वाला अफीम२ तो एक ही रंग३ का होता है वैसे ही हे अनसमझ४ ! सर्वंगी पतिव्रत वाले साधकों के भेष चाहे विभिन्न हो, उनसे कुछ हानि नहीं होती, ज्ञानी५जनों के विवेक प्राप्त करो फिर तुम्हें यह रहस्य ज्ञात होगा ।
(क्रमशः)
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