मंगलवार, 12 मार्च 2019

= *पतिव्रता का अंग ६६(२१/२४)* =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*साधू राखै राम को, संसारी माया ।*
*संसारी पल्लव गहै, मूल साधू पाया ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**पतिव्रता का अंग ६६**
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रज्जब जहिं खड़ जड़ घणी, सो सूखे तत्काल । 
डाभ१ उन्हाले२ में हर्या, एकहि मूल पताल ॥२१॥ 
जिस खड़ के पौधा के बहुत सी जड़ें होती हैं, वह तो शीघ्र ही सूख जाता है और कुशा१ की एक ही जड़ पृथ्वी में गहरी चली जाती है इससे जल के सम्पर्क से नहीं सूखती, गीष्म२ ॠतु में भी कुशा हरी रहती है, वैसे ही पतिव्रत शून्य तो शीघ्र नष्ट होते हैं और जिसकी वृति पतिव्रतयुक्त राम में गहरी प्रवेश कर जाती है वह ब्रह्म को प्राप्त होकर सदा आनन्दित रहता है । 
रज्जब वर्षत वन हर्या, तृण तरुवर गति दोय । 
इक सूखे इक सजल अति, उभय१ उन्हाले२ जोय३ ॥२२॥ 
वर्षने पर सब वन हरा हो जाता है किन्तु आगे तृण और बड़े वृक्षों की दो गति होती है, उन दोनों१ को ग्रीष्म२ ॠतु में देखो३, तृण तो सूख जाते हैं और बड़े वृक्षों की जड़ सजल भूमि में गहरी रहने से नहीं सूखते, वैसे ही जिनकी वृत्ति पतिव्रतयुक्त राम में गहरी रहती है, वे सदा आनन्द में ही रहते हैं । 
अठार भार विधि आदमी, मही सु मनसा४ बंधि१ । 
शब्द सलिल२ जड़ जाणिबा, हेरि लहै सो संधि३ ॥२३॥ 
अठारह भार वनस्पति पृथ्वी में बंधी१ रहती है, तब ही उनकी जड़ जल२ मिलने३ के स्थान को खोजकर जल को प्राप्त करती है, वैसे ही जो मानव विचार४ में बंधा रहता है अर्थात लगा रहता है वह महावाक्य रूप शब्द के द्वारा ब्रह्म को जानकर उससे मिलता है । 
रवि शशि गहिये गगन में, पन्नग१ गह्या पाताल । 
रज्जब रहिये शरण कहीं, भू धूजैं भूचाल ॥२४॥ 
आकाश में चन्द-सूर्य को राहु-केतु ग्रहण करते हैं, पाताल में सर्प१ पकड़े जाते हैं और पृथ्वी भी भूचाल आने से कंपायमान होती है, तब किसकी शरण में रहें ? एक परमात्मा का पतिव्रत रखने से ही रक्षा हो सकती है । 
(क्रमशः)

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