रविवार, 10 मार्च 2019

= *पतिव्रता का अंग ६६(१३/१६)* =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मन सुध साबित आपणा, निश्चल होवे हाथ ।*
*तो इहाँ ही आनन्द है, सदा निरंजन साथ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**पतिव्रता का अंग ६६**
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दोखज१ विहिश्त२ हि क्या करैं, जो अलह के यार३ । 
रज्जब राजी एक सौं, कामिल४ इहै करार५ ॥१३॥ 
जो ईश्वर के मित्र३ हैं वे नरक१-स्वर्ग२ का क्या करे, वे तो एक ईश्वर मिलने से ही प्रसन्न होते हैं, उनके योग्य४ यही पण५ है । 
विहिश्त१ न भावै आशिकूं२, दीन३ दुनी४ रुचि नाँहिं । 
रज्जब राते रब्ब५ सौं, एक बस्या मन माँहि ॥१४॥ 
ईश्वर के प्रेमियों२ को स्वर्ग१ अच्छा नहीं लगता, न दुनियाँ४ के मजहबों३ में ही उनकी रुचि होती है, वे तो ईश्वर५ में अनुरक्त रहते हैं, उनके मन में तो एक प्रभु ही बसे रहते हैं । 
बैकुंठहि बींदैं१ नहीं, सो विषया क्यों लेहि । 
रज्जब राते राम सौं, और हिं उर२ क्यों देहि ॥१५॥ 
जो बैकुण्ठ-सुख के राग में नहीं फंसते१ वे साधारण विषय सुख को क्यों ग्रहण करेंगे ? वे तो राम में ही अनुरक्त रहते हैं, और को अपना हृदय२ क्यों देंगे । 
सिंह न सूंधै घास को, बहुत होंहिं उपवास । 
त्यों रज्जब दीदार१ बिन, कछू न चाहै दास ॥१६॥ 
सिंह के बहुत से उपवास हो जायँ, तो भी वह खाने के लिये घास को सूंघता नहीं, वैसे ही परमात्मा के दर्शन१ बिना भक्त कुछ भी नहीं चाहता । 
(क्रमशः)

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