शुक्रवार, 22 मार्च 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*सहज सहेलड़ी हे, तूँ निर्मल नैन निहारि ।*
*रूप अरूप निर्गुण आगुण में, त्रिभुवन देव मुरारि ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद. २०६)
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

दृष्टो येनात्मविक्षेपो निरोध कुरुते त्वसौ।
जिसके मन में बेचैनिया हैं, वह संयम साधे। जिसके मन में तनाव हैं, वह विश्रांति साधे। और जिसके मन में हजार—हजार तरंगें उठती हैं वासना की, वह निरोध साधे।
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उदारस्तु न विक्षिप्त: साध्याभावात्करोति किम् ।
लेकिन, जिसका मन सच में शांत हुआ, चैतन्य सच में ही विश्रांति को उपलब्ध हुआ, वह किस बात का निरोध करे ! निरोध करने को कुछ बचा नहीं।
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*'विक्षेप—मुक्त उदार पुरुष साध्य के अभाव में क्या करे !'*
उसके लिए कोई साध्य भी नहीं बचा। न साध्य बचा न साधन बचा। ऐसी ही घड़ी परममुक्ति की घड़ी है : जब न कुछ पाने को बचा, न कुछ खोने को बचा। तब आ गये घर। तब आ गये उस जगह जहां आने के लिए सदा से दौड़ रहे थे। और यह जगह कुछ ऐसी है कि भीतर सदा मौजूद थी; कभी भी भीतर मुड़ जाते तो इसे पा लेते।
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इसे खोजने के लिए खोजना जरूरी ही न था; वस्तुत: खोजने के कारण ही भटके रहे। यह स्वभाव है। साध्य नहीं; स्वभाव है। इसे पाने के लिए कुछ करना नहीं है, इसे पाया ही हुआ है। यह प्रभु—प्रसाद है। यह मिला ही हुआ है। यह भीतर ही मौजूद है। लेकिन भीतर जरा दृष्टि तो करो।
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'जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है, वह धीरपुरुष न अपनी समाधि को न विक्षेप को और न दूषण को ही देखता है।’
धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोउपि लोकवत्।
और परम ज्ञानी की परिभाषा करते हैं : 'जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है।’ अब ध्यान दें, जैसे ही जीवन में त्याग आना शुरू होता है, तत्क्षण कोशिश करते हैं कि भोगियों जैसे न बरतें विशिष्ट होने की कोशिश करते हैं।
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लोग तो सदा ही महामानव बनना चाहते हैं, मैं महात्मा कैसे बनूं? यह तो अहंकार ही है। अब यह महात्मा की आड़ में बचना चाहता है। सहज हो जाएं, यह महान बनने की चेष्टा बीमारी है। इस चेष्टा में ही रोग के सारे बीज छिपे हैं, कीटाणु छिपे हैं। ऐसे ही बरतें जैसा सामान्य जन बरतता है। भिन्न होने की चेष्टा ही न करें।
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अंतर आता है भीतर। घटना घटनी है भीतर। भीतर साक्षी हो जाएं, क्रांति हो जायेगी। वही करें जो कल तक करते थे, बस अब साक्षी का सूत्र जोड़ दें।
संन्यास किसी का त्याग नहीं, बल्कि नई भाव—दशा का ग्रहण है। संन्यास किसी को तोड़ नहीं देना है, बल्कि जीवन में एक नये साक्षी— भाव को जोड़ लेना है। ऋण नहीं है संन्यास, धन है।
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'जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है, वह धीरपुरुष न अपनी समाधि को न विक्षेप को और न बंधनलिप्त होने को ही देखता है।’
वीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोउपि लोकवत्।
न समाधि न विक्षेप न लेप स्वस्थ पश्यति।।
ऐसा पुरुष न तो दावा करता कि मैं समाधिस्थ हूं न दावा करता है कि मैं अलिप्त हूं, न दावा करता कि मैं वीतराग हूं—दावा ही नहीं करता। लेकिन अगर उसके पास जाएंगे तो अनुभव करेंगे। 
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उसकी तरंग—तरंग में दावा है, उसमें कोई दावा नहीं है। उसकी मौजूदगी में दावा है। उसके पास अनुभव करेंगे कुछ हुआ है, कुछ अपूर्व घटा है, कुछ अद्वितीय घटा है, कुछ ऐसा घटा है जो घटता नहीं है साधारणत:। और फिर भी चकित होएंगे कि वह सभी जैसा ही व्यवहार करता है।
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कबीर ज्ञान को उपलब्ध हो गये तो उनके भक्तों ने कहा कि अब आप ये कपड़े बुनना बंद कर दें; यह शोभा नहीं देता। कबीर तो जुलाहे थे। अब यह बैठे —बैठे दिन भर कपड़े बुनना, फिर बाजार में कपड़े बेचने जाना—और आप तो इतने बड़े महात्मा हैं, आपके इतने शिष्य हैं, यह आप बंद कर दें ! 
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लेकिन कबीर ने कहा कि नहीं; जो था जैसा था वैसा ही रहने दो। और फिर बहुत रूपों में राम आते हैं बाजार में कपड़े खरीदने और मैं कपड़ा न बनाऊंगा उनके लिए, तो इतने ढंग से कोई कपड़े उनके लिए बनायेगा नहीं। देखते मैं कितने जतन से बुनता हूं ! इतने जतन से कोई बुनेगा नहीं। नहीं, काम जारी रहेगा।
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तो कबीर जुलाहे ही बने रहे; मरते दम तक कपड़ा बुनते रहे और बेचते रहे। यह परम ज्ञानी की अवस्था है। अगर जरा भी अहंकार होता तो यह मौका छोड़ने जैसा नहीं था।
गोरा कुम्हार ज्ञान को उपलब्ध हो गया लेकिन घड़े तो बनाता ही रहा और घड़े तो बेचता ही रहा। कहते हैं किसी ने उससे कहा भी कि यह भी क्या धंधा कर रहे हो कुम्हार का !
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तो उसने कहा, मैंने तो सुना है कि परमात्मा भी कुम्हार है, उसने संसार को बनाया। जब उसे भी शर्म न आई तो मुझे क्या शर्म ! हम छोटे—छोटे घड़े बनाते हैं, उसने बड़े—बड़े घड़े बनाये। अब निश्चित ही वह बड़ा है, हम छोटे हैं।
मगर जो चलता था वह चलता रहा।

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