शुक्रवार, 22 मार्च 2019

= १९३ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*भाई रे, तब क्या कथसि गियाना,*
*जब दूसर नाहीं आना ॥*
*जब तत्त्वहिं तत्त्व समाना, जहँ का तहँ ले साना ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद.११६)
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

निर्वासन: किं कुरुते पश्यत्रपि न पश्यति।
तब संसार दिखाई भी पड़ता है और नहीं भी दिखाई पड़ता है। जो है वही दिखाई पड़ता है। जो नहीं है वह नहीं दिखाई पड़ता। तब वस्तुत: यथार्थ प्रगट होता है। मनुष्य उस यथार्थ पर अपने प्रक्षेपण नहीं करता है। जो जैसा है उसे वैसा ही देख लेना परम आनंद है, परम विश्राम है।
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'जिसने परमब्रह्म को देखा है, वह भला 'मैं ब्रह्म हूं का चिंतन भी करे, लेकिन जो निश्चित हो कर दूसरा नहीं देखता है, वह क्या चिंतन करे !'
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उपनिषद आखिरी उड़ान मालूम होते हैं। उपनिषद के पार भी कोई उड़ान हो सकती है, इसकी संभावना नहीं मालूम होती है, लेकिन सांख्य-सूत्र उपनिषद से भी ऊंची उड़ान भरते हैं। यह सूत्र कह रहा है-
येन दृष्ट परं ब्रह्म सोग्हं ब्रह्मेति चितयेत्।
जिसको ब्रह्म दिखाई पड़ता हो वह शायद ऐसा सोचे भी कि मैं ब्रह्म हूं......।
किं चितयति निश्चितो द्वितीयं यो न पश्यति।
लेकिन जिसे दूसरा दिखाई ही नहीं पड़ता, जिसका सारा चिंतन और चिंतायें समाप्त हो गई हैं, वह क्या सोचे ! वह क्या करे ! वह तो यह भी नहीं कह सकता अहं ब्रह्मास्मि ! क्योंकि अहं और ब्रह्म का कोई भेद ही नहीं बचा है।
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उपनिषद का महावाक्‍व है : अहं ब्रह्मास्मि ! मैं ब्रह्म हूं !
मैं कौन, ब्रह्म कौन ! अभी दो बचे हैं। अभी दो के बीच संबंध जोड़ रहे हैं, मगर दो मिटे नहीं; अभी दूसरा दिखाई पड़ता है।
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प्रसिद्ध झेन फकीर रिंझाई का एक शिष्य उसके पास आया और उसने कहा कि ध्यान फल गया है, फूल लग गये हैं, मैं शून्य को उपलब्ध हुआ हूं। रिंझाई कुछ काम कर रहे थे, चित्र बना रहे थे। उन्होंने आंख भी न उठाई।
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शिष्य बड़ा दुखी हुआ—इतनी बड़ी घटना की खबर ले कर आया कि मैं शून्य को उपलब्ध हो गया हूं और यह एक गुरु है, यह अपना चित्र बना रहे हैं, आंख भी नहीं उठाई ! उसने फिर कहा. आपने सुना नहीं, मैं समाधि को उपलब्ध हो कर आया हूं !
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रिंझाई ने वैसे ही चित्र बनाते कहा कि समाधि इत्यादि फेंक कर आ, शून्य इत्यादि बाहर फेंक कर आ, भीतर मत ला। क्योंकि जब तक तुझे लगता है कि मैं शून्य को उपलब्ध हुआ हूं तब तक तू मौजूद है, फिर कैसा शून्य ! शून्य को जो उपलब्ध हुआ वह यह कह ही नहीं सकता कि मैं शून्य को उपलब्ध हुआ हूं।
कैसे कहेंगे ! कौन कहेगा ! शून्य और मैं दो तो नहीं, एक ही हो गये।

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