सोमवार, 18 मार्च 2019

परिचय का अंग ३१७/३२२

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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दादू हरि रस पीवतां, कबहुँ अरुचि न होइ ।
पीवत प्यासा नित नवा, पीवणहारा सोइ ॥३१७॥
हरिरस पानमत्त भक्तजनों को हरिनामामृतपान में कभी अरुचि नहीं होती, अपितु प्रतिदिन नई नई, अधिकाधिक सुदृढ़ प्रेम से भरी भक्ति वृद्धिङ्गत ही होती रहती है । अधिक क्या कहा जाय ! ऐसा भक्त ही वास्तविक भक्त होता है । भक्तिरसायन ग्रन्थ में लिखा है-
“भगवद्विषयक किसी फलविशेष की कामना से रहित प्रेमयुक्त मनोवृत्ति का निरन्तर बने रहना ही भगवान् को वश में करने वाली भक्ति कहलाती है ।”
प्रीतिभक्ति रस का लक्षण भी उसी ग्रन्थ में बताया है-
“अपने अनुरूप विभावादि द्वारा भक्तों के हृदय में आस्वाद-योग्यता को प्राप्त हुई प्रीति ही ‘प्रीतिभक्तिरस’ कहलाती है । ऐसा भक्त ही वास्तविक भक्त होता है”॥३१७॥
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दादू जैसे श्रवणा दोइ हैं, ऐसे होंहि अपार ।
राम कथा रस पीजिये, दादू बारंबार ॥३१८॥
यदि मेरे शरीर में अनेक कर्णच्छिद्र हों तो मैं उन सब से भी हरिकथामृतरस ही पीता रहूँ । इससे कभी तृप्त न होऊं । क्योंकि हरिकथा तो अमृत से भी सुखदायिनी, चन्द्रमा से भी शीतल एवं विविध ताप एवं पापनाशक है । अतः जो साधक हरिकथामृत का पान करते हैं वे धन्य है । भागवतमहापुराण में लिखा है-
“कवियों ने हरिकथा को ‘अमृत’ कहा है । यह त्रिविध तापतप्त प्राणियों को जीवनदान करती है पापनाशक है । इसके श्रवण मात्र से प्राणियों का मंगल हो जाता है । जो इस पृथ्वी पर भगवत्कथा करवाते हैं, वे भी धन्य हैं । उन्होंने क्या कुछ दान नहीं किया ! अपितु सभी कुछ दान कर दिया ।”
भक्तिरसामृतसिन्धु में भी लिखा है-
“जिस सौभाग्यशाली के हृदय में यह अपूर्व हरिप्रेम उमड़ पड़ता है, उस
की मुद्रा(अन्तर्वाणि) को विद्वान् भी सम्यकता समझने में असमर्थ हैं ।”
॥३१८॥
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जैसे नैना दोइ हैं, ऐसे होंहि अनंत ।
दादू चंद चकोर ज्यों, रस पीवैं भगवंत ॥३१९॥
जैसे चकोर चन्द्रदर्शन कर तृप्त नहीं हो पाता, वैसे ही मेरे इस शरीर में दो नेत्रों की तरह अनंत नेत्र होते तो उन सब से भी प्रभुदर्शन कर तृप्त नहीं हो पाता । अपितु उनको देख-देखकर, उनके चरणारविन्दों को अपने हृत्कमल पर स्थापित कर लेता ! हे प्रभो ! मेरा मन तो आप के दर्शन हेतु उन्मत्त सा हो गया है । अतः मुझे दर्शन देने की कृपा करो । नारदपाञ्चरात्र में लिखा है-
हे पार्वति ! हरिभक्त भगवत्प्रेम में उन्मत्त् होकर सुख-दुःख का भी अनुभव नहीं करता, क्योंकि वह तो परमानन्द में निमग्न है ॥३१९॥
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ज्यों रसना मुख एक है, ऐसे होंहि अनेक ।
तो रस पीवै शेष ज्यों, यों मुख मीठा एक ॥३२०॥
भगवान् ने मुझको एक मुख और एक रसना ही प्रदान की है, यदि मुझे वे कृपाकर अनन्तमुख एवं अनन्त रसना प्रदान करते तो मैं भी शेषनाग की तरह उन सब मुखों से भग्वद्गुणगान करता हुआ भी अतृप्त सा ही रहता ।
ऐसा भाव भक्त को पूर्वजन्मकृत पुण्य से या हरिकृपा से ही प्राप्त होता है । वह भाव दो प्रकार का होता है-
१.भावोत्थ और २.प्रभुप्रसाद से प्राप्त । भक्ति रसायन में लिखा है-
“भावोत्थ का लक्षण यह है कि अन्तरंग अंगों के सेवन से परमोत्कर्ष तक पहुँचा हुआ भाव ही ‘भावोत्थ प्रेम’ कहलाता है ।”
“यह भावोत्थ प्रेम भी वैधभाव एवं रागनुगभावभेद से दो प्रकार का होता है । वैधभाव का उदाहरण भागवत में(११ स्क) लिखा है-
“व्रतों के अनुष्ठान का कर्ता भक्त अपने प्रिय भगवान् के नामकीर्तन से अनुरागयुक्त तथा द्रवित चित्त होकर कभी हँसता है, कभी रोता, कभी चिल्लाता है, कभी उन्मत्त की तरह नाचने लगता है, और कभी पागलों सा गाने लगता है ।”
रागानुगाभावोत्थ का उदाहरण पद्मपुराण में लिखा है-
चन्द्रतुल्य कान्तिवाली वह सुन्दरी कृष्ण की श्यामसलौनी मूर्ति का ध्यान रखती हुई कृष्णातिरिक्त किसी अन्य को पतिरूप में वरण करना नहीं चाहती और सदा ब्रह्मचर्य व्रत धारण किये रहती है । श्रीकृष्ण की गाथा गाती हुई पुलकित गात्र वाली वह सुन्दरी श्रीकृष्ण का गुणानुवाद कभी भी सुनते ही रोमान्चित हो उठती है ।
यहाँ यह रहस्य जान लेना चाहिये कि हरिकृपा से जो भाव पैदा होता है उस में प्रथम कारण साधु-संगति को माना गया है । भगवान् की महती कृपा भक्त को सत्संग दान से प्रारम्भ होती है । ‘दान’ शब्द में ‘संगदानम् आदि यस्य’ यह बहुब्रीहि समास जानना चाहिये । इसका उदाहरण भागवत में देखें, जैसे-
“वह गोपीसमूह न श्रुतियाँ पढ़ा हुआ था, न महापुरुषों की उपासना की थी, उसने व्रतों का अनुष्ठान तथा तप भी नहीं किया था, किन्तु वे भगवान् के संग से भगवान् को प्राप्त हो गयी ।”
महर्षि श्रीदादूजी महाराज ने भी इसी आशय से *राम रटणि छाडैं नहीं* से लेकर *ज्यौं रसना मुख एक है* तक के साखीवचनों से इसी बात(भावोत्थ भक्ति) का ही वर्णन किया है ॥३२०॥
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ज्यों घट आत्म एक है, ऐसे होंहि असंख ।
भर भर राखै रामरस, दादू एकै अंक ॥३२१॥
यदि भगवान् इस एक शरीर की जगह अनन्त शरीर प्रदान किये होते तो मैं उन सभी को भगवान् के भक्तिरसामृतसिन्धु में डुबाये रखता और उनके अन्दर के सभी अन्तःकरणों से भक्तिरस को पी-पीकर भगवान् की साक्षात्काररूपी गोद में खेलता रहता ॥३२१॥
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ज्यों ज्यों पीवै राम रस, त्यों त्यों बढै पियास ।
ऐसा कोई एक है, बिरला दादू दास ॥३२२॥
जैसे जैसे भक्त भक्तिरस का पान करता है, वैसे वैसे ही उसकी पिपासा बढ़ती जाती है । शान्त नहीं होती । ऐसा भक्त हजारों में कोई विरला ही होता है । जैसा कि गीता में लिखा है-
हजारों मनुष्यों में कोई एक ही सिद्धि के लिये यत्न करता है और उनके यत्न करने वालों में भी कोई विरला ही मुझको तत्वतः जान पाता है ।
इसका तात्पर्य यह है- शास्त्रीय ज्ञान कर्मयोग्य हजारों मनुष्यों में से कोई(एक) अनेक जन्म-जन्मान्तर के पुण्यपाक वाला तथा नित्य अनित्य वस्तुओं का विवेकी होकर जो ज्ञानप्राप्ति हेतु प्रयत्न करता हो- ऐसा मनुष्य दुर्लभ है । ज्ञान के लिये यत्न करनेवालों में श्रवण-मनन-निदिध्यासन के परिपाक के अन्त में तत्वमस्यादि वाक्यों से मुझ ईश्वर का साक्षात्कार करने वाला तो अत्यन्त दुर्लभ है । अतः ईश्वर साक्षात्काररूप जिसका फल मोक्ष होता है, वह भी दुर्लभ समझा जाना चाहिये ॥३२२॥
(क्रमशः)

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