मंगलवार, 19 मार्च 2019

परिचय का अंग ३२३/२२८

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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राता माता राम का, मतवाला मैमंत ।
दादू पीवत क्यों रहै, जे जुग जांहि अनन्त ॥३२३॥
रामभक्ति में अनुरक्त तथा संसार से विरक्त और उन्मत्त हुआ भक्त अनन्त युगों के व्यतीत होने पर भी रामभक्ति रसपान को छोड़ना नहीं चाहता, किन्तु पीता ही रहता है; क्योंकि ऐसा भक्तिरस मोक्षसुख को भी लघु(हीन) बना देता है । भक्तिरसायन में लिखा है-
“भक्त के हृदय में यत्किंचित् भी प्रेम उत्पन्न होते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों को तृणवत् तुच्छ बना देता है ।”
नारदपाञ्चरात्र में भी लिखा है-
“मुक्ति आदि सभी सिद्धियाँ और नानाविध भोग-भक्ति-साम्राज्ञी के पीछे-पीछे दासियों की तरह फिरती रहती है ॥”३२३॥
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दादू निर्मल ज्योति जल, वर्षा बारह मास ।
तिहि रस राता प्राणिया, माता प्रेम पियास ॥३२४॥
ब्रह्मसाक्षात्कार के बाद भक्त के हृदय में सर्वकाल में वर्षा की जलधारा की तरह निर्मल तथा ज्योतिःस्वरूप ब्रह्मानन्दरस की धारा सतत प्रवाहित होती रहती है । उस धारा में भक्त ब्रह्मानन्द रस पीता हुआ डूबा रहता है और कभी तृप्त नहीं होता । बल्कि उसकी प्यास निरन्तर बढ़ती ही रहती है ॥३२४॥
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रोम रोम रस पीजिए, एती रसना होइ ।
दादू प्यासा प्रेम का, यों बिन तृप्ति न होइ ॥३२५॥
यदि मेरे शरीर में असंख्य रोमावली की तरह अनन्त रसना हो जाँय तो प्रेम का प्यासा भक्त प्रेमरस पान करते हुए भी कभी तृप्त नहीं होता । यहाँ आचार्य अतृप्ति को ही तृप्ति बता रहे हैं । ऐसी पिपासा(अतृप्ति) को ‘समुत्कण्ठा’ कहते हैं । भक्तिरसायन में इसका लक्षण यों लिखा है-
“अपने अभीष्ट प्राप्ति के लिये अत्यन्त लोभ ही ‘समुत्कण्ठा’ कहलाती है” ॥३२५॥
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तन गृह छाड़ै लाज पति, जब रस माता होइ ।
जब लग दादू सावधान, कदे न छाड़े कोइ ॥३२६॥
अद्वैत ही परमार्थ तत्त्व है, इसे सब नहीं प्राप्त कर सकते; क्योंकि इसमें राग-द्वेषादि प्रतिबन्धक होते हैं । जैसे पतिव्रता नारी घर-कुटुम्ब आदि का अध्यास छोड़कर पतिसेवा में ही मन लगाती है, वैसे ही मननशील, विवेकी एवं निर्दोष भक्त ही भक्ति कर सकते हैं । अतः जो हरिभक्ति चाहता है उसको गृहकुटुम्बादि की आसक्ति त्यागकर ही आगे बढ़ना चाहिये, अन्यथा भक्तिप्राप्ति दुर्लभ ही है ॥३२६॥
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आंगण एक कलाल के, मतवाला रस मांहि ।
दादू देख्या नैन भर, ताके दुविधा नांहि ॥३२७॥
जैसे कलाल के घर जाकर कोई मनुष्य पीकर उन्मत्त हो जाता है तब उसको अपने शरीरादि का भान नहीं होता; क्योंकि वह मद्य पीकर मस्त हो रहा है, ऐसे ही ब्रह्मसाक्षात्कर्ता ज्ञानी को भी, भेदबुद्धि नष्ट हो जाने से, द्वैत नहीं भासता । अपितु समस्त जगत्प्रपंच दुःखरूप ही भासता है । भागवत में लिखा है-
“जिस महात्मा को ब्रह्म साक्षात्कार हो गया है उसको अपना नश्वर शरीर नहीं भासता । वह यह नहीं जानता कि मैं बैठा हूँ या खड़ा हूँ, क्योंकि उसका देहाध्यास नष्ट हो चुका है । जैसे मदिरा पीकर उन्मत्त हुआ पुरुष अपने वस्त्रों को नहीं जानता कि मेरे वस्त्र शरीर पर है या नहीं ।”
छान्दोग्य उपनिषद् में लिखा है-
“आत्मज्ञानी कहीं इन्द्रादि के रूप में स्वर्गसुख भोगता है, कहीं(ब्रह्मलोक में) मनोभव पितरों से क्रीड़ा करता है, कहीं राजा बन कर राज्य करता हुआ रानियों से रमण करता है, कहीं सम्बन्धियों से प्रेम करता है । परन्तु यह सब लोकदृष्टि से है, अपनी दृष्टि से तो न किसी सम्बंधी से प्रेम करता है, न कुछ और; क्योंकि उसको तो उस अवस्था में अपने शरीर का ही भान नहीं है । जब तक उसका प्रारब्ध शेष है तब तक जैसे रथ के घोड़े रथ को खींचे फिरते हैं वैसे ही प्राणवायु उसके शरीर को चलाती रहती है” ॥३२७॥
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पीवत चेतन जब लगै, तब लग लेवै आइ ।
जब माता दादू प्रेम रस, तब काहे को जाइ ॥३२८॥
जब तक मुमुक्षु को ब्रह्मसाक्षात्कार नहीं होता तब तक नित्यानित्य वस्तु के विवेक द्वारा मिथ्या प्रपंच त्यागकर ब्रह्म में ही अपनी वृत्ति को लगाना चाहिये । यदि बीच में वृत्ति-भंग हो जाय तो फिर उसे उसी ब्रह्म में ही लगावे । यों, वृत्ति का आवागमन होता रहता है । साक्षात्कार होने पर तो आवरण की निवृत्ति होने से दग्ध ईन्धन की तरह वृत्ति स्वतः ही निवृत्त हो जाती है । फिर प्रशान्त दीपक की तरह ज्ञानी शान्त हो जाता है । इसी अभिप्राय से श्रीदयाल जी महाराज ने लिखा है-
जब माता दादू प्रेम रस, तब काहें कौं जाइ ।
अर्थात् जो प्राप्त करना था वह पा लिया, जो करना था वह कर लिया, अतः अब मैं कृतकृत्य हूँ । पर्वत की तरह स्वस्थ हूँ ।
जीवन्मुक्ति विवेक में लिखा है-
“प्रशान्त दीपक की तरह जब साधक की चित्तवृत्ति शान्त हो जाती है उसी को असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं । यह समाधि योगियों को अतिप्रिय है ।”
योगशास्त्र में इसे ‘ऋतम्भरा प्रज्ञा’ कहा गया है । सत्य वस्तु को प्रकाशित करने वाली बुद्धि ऋतम्भरा कहलाती है । इस बुद्धि का निरोध हो जाने पर ‘निर्बीज समाधि’ हो जाती है । यह सुषुप्ति के समान है । साक्षिचैतन्य से इसका अनुभव होता है । सर्वोपनिषत्सार संग्रह में लिखा है-
“हे सीते ! चित्तवृत्ति से अतीत, चित्तवृत्ति का प्रकाशक, सर्ववृत्तिरहित जो आत्मा है वह मुक्त ही है । सर्ववृत्तिनिरोध को ही समाधि कहते हैं । ऐसा योगी ब्रह्मसायुज्य को पा लेता है । फिर वह संसार में नहीं आता” ॥३२८॥
(क्रमशः)

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