बुधवार, 20 मार्च 2019

परिचय का अंग ३२९/३३१


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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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दादू अंतर आत्मा, पीवै हरि जल नीर ।
सौंज सकल ले उद्धरै, निर्मल होइ शरीर ॥३२९॥
जब मुमुक्षु विशुद्धि बुद्धि से हरिदर्शन रूप जलपान करता है, क्योंकि श्रुति में भी लिखा है- सूक्ष्मतत्त्वदृष्टा ज्ञानीजन भी उस आत्मा को सूक्ष्म और तीव्र बुद्धि से ही जान सकते हैं; तब उसकी इन्द्रियाँ, मन तथा शरीर पवित्र हो जाते हैं । अर्थात् उस प्रभु के प्रेम में डूब जाते हैं । जैसा कि भागवत में लिखा है-
“श्रुतदेव राजा अपने घर आये भगवान् श्रीकृष्ण को देखकर प्रसन्न हो, अपने वस्त्र फैलाकर नाचने लगा था; जैसे राजा जनक मुनियों को देखकर नाचने लगा था । और भगवच्चरणारविन्दों का ध्यान करता हुआ प्रेमविह्वल और पुलकितगात्र हो, आँखों में जल भरकर गद्गद वाणी से बोल रहा था” ॥३२९॥
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लांबी रस
दादू मीठा राम रस, एक घूँट कर जाऊँ ।
पुणग न पीछे को रहे, सब हिरदै मांहि समाऊँ ॥३३०॥
परा भक्ति साधना में मुमुक्षु पुरुषों की ऐसी उत्कट इच्छा होने लगती है कि मैं अकेला ही इस समय ब्रह्मरस को एक ही श्वास में पी जाऊं । बाकी कुछ भी न बचा रहे । क्योंकि यह अत्यन्त मधुर है । और इस समग्ररस को पीकर अपने हृदय में धारण कर लूँ । महाराज के इस साखीवचन में दर्शनों की उत्कट आकांक्षा का प्रदर्शन किया गया है ॥३३०॥
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चिड़ी चंचु भरि ले गई, नीर निघट नहिं जाइ ।
ऐसा बासण ना किया, सब दरिया मांहि समाइ ॥३३१॥
किसी समय सीकरीनगरी में अपनी राजसभा में सम्राट अकबर ने कहा-“तत्त्व तो कबीर जी पी गये अब तो छाछ बाकी रह गयी है, इसे संसार पीता रहे ।” यह सुनकर महाराज दादूदयालजी ने यह साखी वचन कहा-चिड़ी चंच भर ले गई । जैसे कोई चिड़िया समुद्र से चोंच भर जल ले कर पी जाय तो क्या उससे पूरा समुद्र सूख जाता है? उसी तरह महात्मा कबीर ने यदि ब्रह्म का साक्षात्कार कर ही लिया तो उस ब्रह्म की पूर्णता में क्या कमी आ गयी ! क्योंकि ब्रह्म में ह्रास या वृद्धि नहीं होते । वह तो आकाश की तरह व्यापक है । अतः ऐसी भावना अज्ञान से ही उद्भूत होती है । क्योंकि उपनिषद् कहती है-
“वह सच्चिदानन्द परब्रह्म परमात्मा सब प्रकार से पूर्ण है । यह जगत् भी पूर्ण ही है, क्योंकि यह उस पूर्ण परमात्मा से ही उत्पन्न होता है । पूर्ण से पूर्ण को निकाल लेने पर भी पूर्ण ही बचता है ॥” गीता में भी यही लिखा है-
“यह आत्मा जन्म-मरण रूप षड्भाव विकार से रहित है । क्योंकि यह अज एवं अविनाशी है । अतः यह पुराण व शाश्वत ही है ॥३३१॥”
(क्रमशः)

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