बुधवार, 6 मार्च 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*केते पारिख जौहरी, पंडित ज्ञाता ध्यान ।*
*जाण्या जाइ न जाणिए, का कहि कथिये ज्ञान ॥*
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साभार ~ satsangosho.blogspot.com

वेदों में एक बड़ी अनूठी बात है। 'यह सब क्या है?' —ऋषि ने पूछा है।
'शायद परमात्मा जिसने इसे बनाया वह जानता हो, या कौन जाने वह भी न जानता हो !'
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यह बड़ी अदभुत बात है। परमात्मा ! वेद के ऋषि कहते है. 'यह सब क्या है?'
'शायद ! शायद, परमात्मा जानते हैं, जिसने यह सब बनाया, या कौन जाने वह भी न जानते हों !' बड़े हिम्मतवर लोग रहे होंगे। इसका सार अर्थ हुआ कि परमात्मा को भी पता नहीं है। असल में जिस का पता हो जाये, वह व्यर्थ हो जाती है। पता ही हो गया तो फिर क्या बचा? पता चल गया तो परिभाषा हो गयी।
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इस अस्तित्व की अब तक कोई परिभाषा नहीं हो सकी। कोई कह सका, क्या है? इसलिए तो भगवान बुद्ध चुप रह गये। जब उनसे पूछो ईश्वर है? वे चुप रह जाते हैं। आत्मा है? वे चुप रह जाते हैं। यह ठीक—ठीक उत्तर दिया भगवान बुद्ध ने ! वे कहते हैं, यह बकवास बंद करो आत्मा, ईश्वर की ! कौन जान पाया? जागो ! जानने की चिंता छोड़ो।
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तो एक तो कर्ता की दौड़ है, वह अहंकार की दौड़ है। फिर एक ज्ञान की दौड़ है, वह भी अहंकार की दौड़ है। कर्ता कहता है, अच्छा करो, बुरा मत करो। ज्ञानी कहता है : सत्य को जानो, असत्य को मत जानो। लेकिन दोनों भेद करते हैं।
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धार्मिक व्यक्ति तो कहता है. जाना ही नहीं जा सकता। अगर यह समझ में आ जाये कि जाना ही नहीं जा सकता, फिर कैसे खोज पाएंगे, बताएं ! यह जाना कि नहीं जाना जा सकता, इसे कभी भी खो सकेंगे? फिर यह स्वयं की संपदा हो गयी। फिर मुट्ठी खोलो कि बंद करो, हिलाओ—डुलाओ हाथ, मुट्ठी खोल कर या बंद करके, यह खोयेगा नहीं। यह अपनी संपदा हो गयी। फिर इसे कैसे छोड़ पाएंगे? कोई उपाय है छोड़ने का? जानना तो छूट सकता है, भूल सकता है; लेकिन यह अज्ञान का गहन भाव कि नहीं कुछ पता है.....।
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*उपनिषद कहते हैं, जो जानता है, जान लेना कि नहीं जानता। जो नहीं जानता, जानना कि वही जानता है। ये परम ज्ञानियों की उदघोषणाएं हैं।*

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