सोमवार, 11 मार्च 2019

परिचय का अंग २८४/२८७


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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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संतप्रवर महर्षि श्रीदादूदयाल जी महाराज बता रहे हैं कि ::
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मन चित्त मनसा आत्मा, सहज सुरति ता माँहि ।
दादू पंचौ पूरि लै, जहँ धरती अम्बर नाँहि ॥२८४॥
पञ्चदशी में लिखा है ::- “निर्गुणोपासना की परिपक्व अवस्था ही निर्विकल्पक समाधि है । उस का भी निरोध हो जाने पर असङ्गवस्तु ही शेष रह जाती है । इस तरह बार बार अभ्यास करने से साधक को तत्त्वज्ञान हो जाता है । और उसी समय वह मुक्त हो जाता है ।”
तापनीय उपनिषद् में लिखा है - “वह साधक अकाम, निष्काम, आप्तकाम, आत्मकाम हो जाता है । उसके प्राण कहीं भी उत्क्रमण नहीं करते । यहीं ब्रह्म में लीन हो जाते हैं । ब्रह्म होकर ब्रह्म में लीन रहता है ।”
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दादू भीगे प्रेम रस, मन पंचौ का साथ ।
मगन भये रस मैं रहे, तब सन्मुख त्रिभुवननाथ ॥२८५॥
इसका यह आशय है - सद्गरु के शब्दों से अपने मन की वृत्ति एकाकार कर, शरीराध्यास का त्याग कर स्वचित्त से आत्माराम का चिन्तन करें । मन से अभेदबोधक श्रुतियों का मनन करे । यदि कोई इच्छा भी करें तो वह ब्रह्म विषयक ही करनी चाहिये । हरि प्राप्ति का ही लक्ष्य होना चाहिये ।
इस प्रकार स्थल-सूक्ष्म शरीर संघात को आत्मपरायण कर अपने मन को अन्यत्र न जाने दे । क्योंकि सभी सांसारिक पदार्थ अनित्य हैं । राम ही अद्वैतरूप तथा निजरूप है, जहाँ दैत की गन्ध भी नहीं है । वह तो हमारा सर्वदा साथ रहने वाला मित्र है । जहाँ, पूवी आदि पशभूतों का प्रवेश भी नहीं हो सकता । यो निर्विकल्प समाधि में प्राण सहित आत्मा जब समाहित हो जायेगा, तब वह प्रभु प्रेमरस से आप्लावित हो कर आनन्दसागर में मग्न हो जायेगा । तभी त्रिलोकीनाथ बह्म का साक्षात्कार होगा ।
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*ध्यान-अध्यात्म*
दादू शब्दें शब्द समाइ ले, परआतम सौं प्राण ।
यहु मन मन सौं बंधि ले, चित्तै चित्त सुजाण ॥२८६॥
साधक को सर्वप्रथम गुरुपदिष्ट आत्मबोधक शब्द सुनकर अपनी श्रवणेन्द्रिय को अनाहदनाद में प्रवीण करो । ईश्वर चिन्तन करते हुए अपने चित्त को ईश्वरचित्त में लीन जीवात्मा का परमात्मा में लय करो । सहजावस्था द्वारा मनोवृत्ति को सहज स्वरूप ब्रह्म में लीन करो । चिन्तन से स्वचित्त को समष्टि चित्त में लीन करो ।
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दादू सहजैं सहज समाइले, ज्ञानैं बंध्या ज्ञान ।
सूत्रैं सूत्र समाइले, ज्ञानैं बंध्या ध्यान॥२८७॥
परोक्षज्ञान को अपरोक्ष में एवं व्यष्टि तैजस को हिरण्यगर्भ में लीन करो । प्रतीक ध्यान को छोड़कर मैं ब्रह्म हूँ - ऐसी उपासना करो । भेद दृष्टि को अभेद दृष्टि में लीन करो । और मायिक पदार्थाकार वृत्ति का त्यागर कर ब्रह्माकार वृत्ति बनाओ । अयथार्थ ज्ञान यथार्थ ज्ञान में परिणत करो ।
(क्रमशः)

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