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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= १६. राग सोरठ (१४/१)=*
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*भाई रे सतगुरु कहि संमुझाया ।*
*मोहि एक बिचार बताया ॥(टेक)*
*धाये भूषे भूषे भूषे, जब लग नहीं संतोषा ।*
*धाये धाये भूषे धाये, हरि भजि पायौ मोषा ॥१॥*
*बैठे चलते चलते चलते, जब लग मन थिर नांहीं ।*
*बैठ बैठे चलते बैठे, जब संमुझै हरि मांहीं ॥२॥*
कौन ‘मध्यम’, कौन उत्तम?
अरे भाई ! सद्गुरु ने मुझको एक बात भली भाँति समझा दी है ॥टेक॥
ऐसा आदमी पूर्ण भोजन कर तृप्त होने पर भी स्वयं को भूखा ही समझता है यदि उसे हरिभजन द्वारा संतोष धन न प्राप्त हुआ हो । हाँ ! यदि वह भगवद्भजन से तृप्त है तो उस को लौकिक भूख भी नहीं सताती ॥१॥ यदि ऐसे आदमी का हरिभजन में मन स्थिर नहीं हुआ तो समझो कि वह बैठा हुआ भी चंचल ही है । यदि उसका हरिभजन में मन लग गया तो वह सैकड़ों कर्म करता हुआ भी स्थिर ही समझा जाना चाहिये ॥२॥
(क्रमशः)
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