शनिवार, 2 मार्च 2019

परिचय का अंग २४९/२५२

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ महामंडलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज,श्री दादूद्वारा बगड,झुंझुनू ।
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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संतप्रवर महर्षि श्रीदादूदयाल जी महाराज बता रहे हैं कि ::
सांइ सरीखा सुमिरण कीजै, सांई सरीखा गावै ।
सांई सरीखी सेवा कीजै, तब सेवक सुख पावै ॥२४९॥
उपासना का यही फल बताया गया है कि सेव्य-सेवक भाव को पार कर दोनों अभिन्न हो जाँय । परमात्मा सच्चिदानंद रूप है, अत: इसी रूप में उपासना करते हुए साधक तद्रूप हो जाता है । अतः उसी का गुणगान, उसी की स्तुति, उसी का नामकीर्तन अखण्डशः करते रहना चाहिये ।
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परिचय करुणा विनती
दादू सेवक सेवा कर डरै, हम तैं कछू न होय ।
तूं है तैसी बन्दगी, कर नहिं जाणे कोय ॥२५०॥
हे प्रभो करुणासिन्धो ! मैं आपकी कोई सेवा नहीं कर पाया, क्योंकि मैं वस्तुत: सेवाविधि ही नहीं जानता । अत: जैसे आप हैं, वैसी सेवा मुझ से कैसे हो सकती है ? मैं ही क्या ? कोई अन्य भक्त(सेवक) भी अनन्य मन से आपकी अखण्ड सेवा नहीं कर सकता, क्योंकि शास्त्र में सभी धर्मों से सेवाधर्म का पालन सबसे कठिन माना गया है । अतः क्षमा करें । इस प्रकार क्षमा मांगते हुए भगवत्सेवा करें, उसे छोड़े नहीं, अपितु प्रतिदिन नये नये ढंग से सेवा करते हुए भी तृप्त न हों । भक्त को भगवान् की अखण्ड सेवा के लिये बार बार यत्न करना चाहिये ।
हे भगवान् ! मेरा जीवन तो आपकी सेवा के लिये ही है, अत: मुझ से जैसी तैसी बनी, यह सेवा आप स्वीकार करें ।
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दादू जे साहिब माने नहीं, तऊ न छाड़ौं सेव ।
इहिं अवलम्बन, जीजिये, साहिब अलख अभेव ॥२५१॥
यदि भगवान् भक्त की सेवा को स्वीकार करने में आनाकानी भी करें तो भी भक्त को सेवास्वभावी होने के कारण अपने द्वारा की जा रही सेवा से विरत नहीं होना चाहिये । और भक्त को उसकी सेवा में ही स्वजीवन की सफलता मानते हए अन्य देव की सेवा में रुचि नहीं दिखानी चाहिये ।
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आदि अन्त आगे रहै, एक अनुपम देव ।
निराकार निज निर्मला, कोई न जाणै भेव ॥२५२॥
जैसा की वेदों में लिखा है “आत्मा नीचे ऊपर, पीछे, आगे, दक्षिण, उत्तर सर्वत्र व्यापक है ।” यों वह आत्मा साधक के आगे पीछे व्यापक होने से सर्वत्र विराजता है । मूढ अज्ञानी फिर भी उस निर्मल निराकार निजरूप अतिसमीप में स्थित आत्मा को न जानता है, न जानने का प्रयास करता है । अत: उसकी उपासना(सेवा) में मन नहीं लगाता ।
वेद में लिखा है - “जो आत्मा सब भूतों में रहता है, सब भूतों के अन्दर है, फिर भी उस परमात्मा को कोई नहीं जानता । जिसके सब भूत शरीर हैं, सब भूतों के अन्दर रह कर सबका संयमन करता है । यह तेरा आत्मा अन्तर्यामी अमृतस्वरूप है ।”
यों आत्मा की ऊपर, नीचे सर्वत्र सत्ता सिद्ध होने पर भी अज्ञ जन उसे नहीं जान पाते ।
(क्रमशः)

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