#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*पर पुरुषा सब परहरै, सुन्दरी देखै जागि ।*
*अपणा पीव पिछाण करि, दादू रहिये लागि ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**पतिव्रता का अंग ६६**
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एक सौं एक दूजे सौं दूजा,
रज्जब राम खुशी नहिं दूजा ॥६५॥
अद्वैत ब्रह्म की पूजा उससे एक होकर करना और दूसरे की पूजा दूसरा होकर करना, इस प्रकार की पूजा से ही राम प्रसन्न होते हैं ।
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रोजा राखै द्वार दश, वरत करै वश पंच ।
जन रज्जब नित नियम यहु, लगे नहीं यम अंच१ ॥६६॥
दश द्वारों को ठीक संयम से रखना यही रोजा करना है, पंच ज्ञानेन्द्रियों को वश में करना ही व्रत करना है यह नित नियम करने वाले के यम की चोट१ नहीं लगती ।
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व्रत नहिं छाड़े राम को, व्रत नहिं भुगतै काम ।
व्रत न मद्य मांसहि भखे, नमे न निर्जर धाम ॥६७॥
राम का भजन न छोड़ना ही व्रत है, नारी को कामुकता से न भोगना व्रत है, मद्य न पीना व्रत है, मांस न खाना व्रत है, देवताओं को उपास्य मानकर नमस्कार न करना व्रत है, यही पांच व्रत श्रेष्ठ है ।
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गंठ जोड़ा गुरु ज्ञान कर, हथलेवा हरि हेत ।
रज्जब भामिनि१ भाम२ ने, भाँवरि भरि भरि लेत ॥६८॥
जैसे नारी१ पति को विवाह संस्कार द्वारा प्राप्त करती है, वैसे ही संतों की वृति भामिनी गुरु-ज्ञान का गंठ जोड़ा और हरि-प्रेम का हथलेवा करके अपने प्रियतम२ परमेश्वर के स्वरूपाकार होना रूप भाँवरि भर भर के उन्हें प्राप्त करती है ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित पतिव्रत का अंग ६६ समाप्त ॥सा. २१४०॥
(क्रमशः)
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