सोमवार, 4 मार्च 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*आंधी के आनन्द हुआ, नैंनहुँ सूझन लाग ।*
*दर्शन देखे पीव का, दादू मोटे भाग ॥*
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साभार ~ Soni Manoj

विद्यार्थी : हमने बाइबिल जैसे कई साधनों से जाना है कि परमात्मा ने मनुष्य को अपनी शक्ल में बनाया है .. यदि सभी कुछ परमात्मा ने निर्मित किया है तो सभी कुछ अच्छा होना चाहिए । तब फिर यह बुरा या अशुभ यह शैतान कहां से आया ?

ओशो : बहुत सी बातें ध्यान में रखनी पड़ेंगी । प्रथम, ऐसा सोचना ही कि परमात्मा स्रष्टा है, वास्तविकता को दो भागों में बांटना है --- सृष्टि और स्रष्टा ऐसा कोई विभाजन या द्वैत नहीं है । स्रष्टा ही सृजन है । संसार और परमात्मा दो वस्तुएं नहीं हैं । सृजन ही स्रष्टा है । यह किसी चित्रकार की तरह नहीं हैं ? कि चित्रकार एक चित्र बनाता है । जिस क्षण चित्र बनाया जाता है दो वस्तुएं होती हैं -- चित्रकार और चित्र । स्रष्टि नर्तक की तरह है जहां नृत्य और नर्तक एक ही हैं ।
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जब आप परमात्मा के बारे में द्वैत की भाषा में सोचते हैं तो परमात्मा एक झूठा परमात्मा हो जाता है । परमात्मा कोई ऐसा नहीं है जो भिन्न हो, अलग हो, कहीं दूर बैठा हो इस संसार से और शासन कर रहा हो, सबको चला रहा हो कहीं दूर संसार से हटकर । यह संसार ही, इसका होना ही परमात्मा है । इसलिए परमात्मा शब्द भी मानव-शरीर केंद्रित है ।
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यह हमारा निर्मित किया हुआ है । हमने एक प्रक्रिया को व्यक्ति की भांति ले लिया । परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है बल्कि एक प्रक्रिया है, सतत् बनती हुई, बदलती हुई, सतत् बढ़ती हुई, आगे और आगे । परमात्मा एक प्रक्रिया है । इस तरह मेरे लिए, परमात्मा एक सृजनात्मक प्रक्रिया है । न कि स्रष्टा ।
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दूसरी बात, मनुष्यों ने मनुष्यों की तरह सोचा । सचमुच यह स्वाभाविक है । हमने कहा कि परमात्मा ने मनुष्य को अपनी शक्ल में बनाया । यदि घोड़े सोच सकते तो इस बात को नहीं मानते । वे कहेंगे कि परमात्मा ने घोड़ों को अपनी शक्ल में बनाया । चूंकि मनुष्य ने दर्शनशास्त्र आदि बनाए हैं इसलिए उसने अपने को केंद्र पर रखा । यहां तक कि हमने सोचा कि परमात्मा भी हमारी शक्ल में होना चाहिए । उसे हमें भी अपनी ही शक्ल में बनाना चाहिए । मनुष्य के अहं ने इन सब बातों को निर्मित किया । यह कोई ज्ञान नहीं है, यह कोई जानना नहीं हैं । 
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यह मात्र मानव-शरीर केंद्रित भावनाएं हैं । मनुष्य स्वयं को केंद्र पर रखता है । इसलिए, हमने सोचा कि पृथ्वी विश्व का केंद्र है और मानव सृजन का केंद्र है । ये सब धारणाएं झूठी कल्पनाएं हैं, सपने हैं : मानव के अहं के । परमात्मा ने किसी को अपनी शक्ल में नहीं बनाया, क्योंकि सब कुछ उसकी ही आकृति है । पेड़, पृथ्वी, तारे, पशु, आदमी, औरत, सब कुछ जो भी है उसकी ही आकृति है, न कि अकेला मनुष्य ।

और फिर हमने संसार को भी बांट दिया शुभ और अशुभ में, अच्छे और बुरे में । संसार इस तरह बंटा हुआ नहीं है । अच्छा और बुरा हमारी मान्यताएं हैं । पृथ्वी पर कोई मनुष्य नहीं हो तो कुछ भी बुरा नहीं होगा, कुछ भी अच्छा नहीं होगा । बस फिर वस्तुएं होंगी । वे होंगी पर उनके अच्छे व बुरे मूल्य नहीं होंगे । सब मूल्य मनुष्य निर्मित हैं, वह हमारा आरोपण है, वह हमारा प्रक्षेपण है । इसलिए हम कहते हैं कि कुछ अच्छा है, कुछ बुरा है । जहां तक सृष्टि का संबंध है, सृजनात्मक प्रक्रिया 'है' से संबंधित है, मात्र 'इस' से, 'है' से, 'होने' से ।
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कुछ भी शुभ नहीं है, कुछ भी अशुभ नहीं है । न रात्री बुरी न दिन अच्छा है । अंधकार भी है, प्रकाश भी है । ये दोनों वस्तुएं नहीं हैं जो भिन्न हों, अलग हों - ये दोनों एक वास्तविकता की दो लहरें हैं । परमात्मा के लिए, अंधेरा अशुभ है । हमारा भयग्रस्त मन हमेशा अंधकार से डरता रहा है । इसलिए, हम कहते हैं कि परमात्मा आलोक है, हम कभी भी नहीं कहते कि परमात्मा अंधेरा है, क्योंकि अंधकार हमारे लिए सदैव ही भयपूर्ण रहा है । कुछ भी बुरा नहीं है । 
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हम कहते हैं कि जीवन अच्छा मृत्यु बुरी है । परंतु ऐसा कैसे हो सकता है ? मृत्यु तो जीवन का शिखर है, जीवन की पराकाष्ठा है । मृत्यु तो जीवन का अंग-प्रत्यंग है । कोई जीवन-प्रक्रिया संभव नहीं हो सकती बिना मृत्यु की प्रक्रिया के । इसलिए जीवन और मृत्यु दो अलग चीजें नहीं हैं वरन् एक ही प्रक्रिया के दो पैर हैं । परंतु मरने से डरते हैं । इसलिए हम कहते हैं कि मृत्यु बुरी है । यदि परमात्मा ने ही संसार की रचना की है तो फिर जीवन ही जीवन होना चाहिए था, कोई मृत्यु नहीं होनी चाहिए थी । परंतु यदि ऐसा संभव हो पाता तो वह सर्वाधिक ऊबाने वाला अस्तित्व होता ।
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यदि जीवन ही जीवन होता तो हम परमात्मा से मृत्यु की प्रार्थना करते क्योंकि जीवन का भी एक क्षण होता है और मृत्यु का भी एक क्षण होता है । एक क्षण ऊपर उठाने का होता है, एक क्षण नीचे जाने का होता है । बिना चारों और खड्डे के कोई शिखर नहीं होता । परंतु हम तो शिखर ही चाहते हैं, न कि खड्डा । वह संभव नहीं है । ये दोनों एक ही वास्तविकता के दो भाग हैं --- बुराई और अच्छाई, शुभ और अशुभ ।
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इसलिए सृजनात्मक प्रक्रिया कर अपनी भावनाएं और अपने मूल्य न थोपें बल्कि यदि आपको सृष्टा का या सृजन का पता लगाना है तो स्वयं के पार जाना होगा, इन सब द्वैतों के पार जाना होगा । द्वैत की भाषा में न सोचें । जब आप गहरे जाएंगे, जब आप बहुत भीतर उतरेंगे तो बुराई अच्छाई में परिवर्तित हो जाएगी । ये एक ही वास्तविकता की लहरें हैं, भिन्न - भिन्न रूप हैं --- उसी वास्तविकता के । 
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उदाहरण के लिए, यदि मैं बीमार हो जाता हूं तो यह मेरे लिए बुरा है, परंतु मेरी बीमारी के कीटाणु हैं, उनके लिए मेरी बीमारी जीवन है और अच्छी है । तब कौन इसका निश्चय करेगा ? मैं या कीटाणु ? यदि मैं स्वस्थ हो जाऊं तो कीटाणुओं को मरना होगा । इस तरह उन कीटाणुओं के लिए मेरा स्वास्थ्य बुरा है और मेरे लिए वे कीटाणु और उनका जिंदा रहना । परंतु परमात्मा की दृष्टि में वे कीटाणु और मैं दोनों समान हैं ।
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इसलिए, परमात्मा के लिए कुछ भी बुरा या अच्छा नहीं है । वही हममें जीता है और हममें मरता है । वही अंधकार है और वही प्रकाश है । और इसलिए वही अतिक्रमण है, पार है दोनों के और नहीं भी है । परंतु हमारा मन -- युग्म शास्त्रीय मन -- हमेशा द्वैत की ही भाषा में सोचता है । वह बिना विभाजन के सोच ही नहीं सकता । 
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जब कभी हम किसी बात के बारे में सोचेंगे, हम उसे दो भागों में बांट देंगे । यही मन की पद्धति है । मन कभी भी एकता की भाषा में, समन्वय की भाषा में नहीं सोच सकता । वह तो हमेशा ही विश्लेषण की भाषा में सोचता है । इसलिए मन के प्रिज्म, संपार्श्व से जो भी गुजारता है विभाजित हो जाता है । प्रकाश तो एक है परंतु वही फिल्म, संपार्श्व हर वस्तु को बांट देता है । 
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इसलिए यदि आपको उस अविभाजित को जानना है और अनुभव करना है तो मन के पार जाना होगा । अपने मन को उपकरण की तरह काम न लें । वह आपको द्वैत के बाहर नहीं जाने देगा । तब सृष्टि और सृष्टा होंगे । यह विभाजन झूठा है और यह झूठा विभाजन झूठी समस्याएं खड़ी करेगा, झूठी धार्मिक आस्थाएं और झूठे थियोलोजियन पैदा करेगा आप समस्याएं पैदा करेंगे और फिर उनके समाधान के लिए विचार करेंगे । चूंकि समस्याएं झूठी है, समाधान भी गलत होंगे । इसलिए सारी आध्यात्म विद्याएं जो द्वैत पर आधारित हैं, वे झूठी हैं । 
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धर्म अध्यात्मविद्या नहीं है, वह कोई मत नहीं है । अध्यात्मविद्या ईसाई हो सकती है, हिंदू हो सकती है, बौद्ध हो सकती है । परंतु धर्म न तो हिंदू है न ईसाई, और न बौद्ध है । धर्म तो एक अनुभुति है, समग्र की अनुभूति । और अध्यात्मविद्या एक अनुमान है, धारणा है मूलत : एक गलत द्वैत की । और तब समस्याएं खड़ी होती हैं । : Osho : क्रमश: शेष अगली पोस्ट में ।

पाथेय / ' बियांड एंड बियांड ' के 
अनुवाद से संकलित एक अंश ।।
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