सोमवार, 4 मार्च 2019

= *अन्तकाल अन्तराय ब्यौरा का अंग ६५(९/१२)* =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐 
*दादू फिरता चाक कुम्हार का, यों दीसे संसार ।*
*साधुजन निहचल भये, जिनके राम अधार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*अन्तकाल अन्तराय ब्यौरा का अंग ६५* 
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रज्जब साधू ध्रुव मते१, आसण अधर२ अकाश । 
तन तोयं३ की लहर में, तेउ चपल अभ्यास ॥९॥ 
संत ध्रुव के समान मतवाले१ हैं, जैसे ध्रुव का आसन तो आकाश में अचल है किन्तु जल३ की लहर में वे भी चंचल दीखते हैं, वैसे ही संत तो आत्म स्वरूप से ब्रह्म२ में स्थिर हैं किन्तु शरीर की क्रिया रूप लहर में चंचलता का अभ्यास भी है । 
पिंड पान ज्यों हाल ही, विपति वात१ की घात । 
महा पुरुष मन मूल मत, सो सुस्थिर दरसात ॥१०॥ 
वायु१ के आघात से वृक्ष के पत्ते तो हिलते हैं किन्तु मूल नहीं हिलता, वैसे ही महापुरुष का शरीर तो विपत्ति से हिल जाता है किन्तु मन तो मूल के समान स्थिर ही दीखता है । 
खंड खंड पिंड हिं करे, प्राण हि परे न राय१ । 
त्यों विघ्न समय वाणी विकल, हेत हत्या नहिं जाय ॥११॥ 
काल शरीर के तो टुकड़े टुकड़े कर सकता है किन्तु प्राण में तो दरार१ भी नहीं पड़ती, वैसे ही विघ्न के समय संत की वाणी तो विकल हो सकती है किन्तु उसका भगवत् प्रेम नष्ट नहीं हो सकता । 
काल नींद काया गहै, पै मन पवन वश नाँहिं । 
यूं अंतर अंतक समय, रज्जब समझ्या माँहिं ॥१२॥ 
काल व निद्रा शरीर को ही पकड़ते हैं, मन और प्राण काल के वश नहीं होते ऐसा विघ्न काल आने के समय होता है, यह हमने भगवत् कृपा से भीतर ही समझा है । 
(क्रमशः)

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