शुक्रवार, 8 मार्च 2019

परिचय का अंग २७२/२७५

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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संतप्रवर महर्षि श्रीदादूदयाल जी महाराज बता रहे हैं कि ::
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तेज पुंज को विलसणा, मिल खेलें इक ठाँव ।
भर-भर पीवै राम रस, सेवा इसका नाम ॥२७२॥
जब भक्त तेज:पुञ्जभूत पवित्र परब्रह्म में रमण करता हुआ आत्मानुभूति से समस्त आसक्तियों से विरक्त होकर दिन रात रामरस का पान करता है, वही वास्तविक आध्यात्मिक भगवत्सेवा समझी जानी चाहिये ।
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अरस परस मिल खेलिये, तब आनन्द होय ।
तन-मन मंगल चहुँ दिश भये, दादू देखै सोय ॥२७३॥
जब परस्पर प्रेमपाशाबद्ध हो भक्त और भगवान प्रेम भाव का अतिक्रमण कर दोनों ही एकात्मभाव को प्राप्त हो जाते हैं, तब चारों दिशाओं में शरीर और मन में आध्यात्मिक मंगल उदय होता है । उस समय मैं भी उपास्य उपासक भावजन्य एवं अभेद आनंद का अनुभव करता हूं ।
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मस्तकि मेरे पाँव धरि, मंदिर, माँहीं आव ।
सँइयां सोवे सेज पर, दादू चंपै पाँव ॥२७४॥
हे भगवन् ! आप अपने चरणकमलों को मेरे शिर पर रख, मेरा अहंकार दूर करते हुए मेरे ह्रदयमन्दिर में आकर विराजें, क्योंकि आपके चरणकमलों के स्पर्श से मेरा अहंकार नष्ट हो कर मैं आपके दर्शनों के योग्य हो जाऊंगा । वहाँ आप निर्मल एवं कोमल हृदय शैय्या पर विराजमान होकर सुषुप्तिसुख का अनुभव करें । जिससे मुझे सर्वदा दर्शन होते रहें और मैं आपके चरणकमल दबाता हुआ आपके मुखकमल का दर्शन भी करता रहूँ ।
भक्तिरसायन ग्रन्थ में लिखा है - “बहुत से भक्त भगवान् के चरणकमलों की सेवा के लिये रहते हैं । अतः स्त्री होने के कारण, मेरा वहाँ रहना उचित नहीं किन्तु मखारविन्द का दर्शन करने के लिये मेरी वृत्ति सदा वहीं लगी रहे अर्थात् चरणारविन्द का स्पर्श एवं मुखारविन्द का दर्शन होता रहे ।”
“आपके यहाँ आने से आपके दर्शनों से मुझे परमानन्द की प्राप्ति हो गयी । परंतु पहले आपने हमारे साथ धोखा किया था और अकस्मात् चले गये । अतः हमारा मन अब आपके प्रति शंकालु है, कहीं आप फिर न चुपचाप चले जाँय । अतः आप यदि निष्कपट हैं तो शीघ्र ही आकर हमें पुनः आश्वासन दें कि अब मैं कहीं नहीं जाऊंगा ।” ऐसा कहते-कहते भक्त ने भगवान को को अपने नेत्रद्वार से हृदयमन्दिर में भेज दिया ।”
यद्यपि भगवान् के सर्वव्यापक होने के कारण भक्तों को भगवद्दर्शन सर्वत्र हो सकता है, फिर भी मन में शङ्का बनी हुई है कि क्या मालूम, मुझे छोड़कर किस अन्य भक्त को दर्शन देने हेतु अन्यत्र चले जाँय ! अतः मैं भगवान् को अपने हृदय में छिपा कर बैठा लूँ कि वे कहीं अन्यत्र जा ही न सकें ।
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ये चारों पद पिलंग के, सांई की सुख सेज ।
दादू इन पर बैस कर, सांई सेती हेज ॥२७५॥
ब्रह्माकारवृत्तिरूप शय्या के भगवत्प्राप्ति के साधनस्वरूप चार पाद हैं - अहंकार की निवृत्ति, परम श्रद्धा, ध्यान और परम प्रेम । इन साधनों की परिपक्व दशा में साधक के अन्तःकरण में ब्रह्माकार वृत्ति पैदा होती है । अत: इन साधनों द्वारा प्रभु से प्रेम करना चाहिये ।
श्रीमदभागवत में लिखा है - “मन जब अहङ्कार ममता से उत्पन्न काम-क्रोधादि से रहित हो जाता है, तब उस मन से प्रकृति से परे केवल उस आत्मा को निरन्तर स्वयञ्ज्योतिःस्वरूप सूक्ष्म व अखण्ड रूप से देखता है । ज्ञान, वैराग्य तथा भक्तियुक्त मन द्वारा प्रकृतिरहित उदासीन ब्रह्म को देखता है । उस स्थिति में मन सुख दुःख रहित समभाव से रहता है ।”
(क्रमशः)

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