गुरुवार, 14 मार्च 2019

परिचय का अंग २९८/३०२

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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दादू पंचों संगी संग ले, आये आकासा ।
आसन अमर अलेख का, निर्गुण नित वासा ॥२९८॥
प्राण पवन मन मगन ह्वै, संगी सदा निवासा ।
परचा परम दयालु सौं, सहजैं सुख दासा ॥२९९॥
जो योगी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को स्व स्व विषयों से हटाकर निर्विकल्प समाधि में परम दयालु भगवान् के साथ एक होकर रहता है, जहाँ प्राण और मन भी स्थिर रहते हैं । वह योगी सदैव ब्रह्मानन्द में मग्न रहता है । जीवन्मुक्तिविवेक में लिखा है-
“ब्रह्मवेत्ता परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर निःशोक हो जाता है । वह ब्रह्म रसरूप है । उसे प्राप्त कर वह अभय तथा शोकरहित व आनन्दस्वरूप हो जाता है ।” श्रुति में भी कहा है-
“ब्रह्मवेत्ता विद्वान् किसी से भयाक्रान्त नहीं होता ।” ॥२९८-२९९॥
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दादू प्राण पवन मन मणि बसै, त्रिकुटि केरे संधि ।
पाँचों इन्द्री पीव सौं, ले चरणों में बंधि ॥३००॥
आज्ञाचक्र तथा सहस्त्रारचक्र के बीच में स्थित प्रियतम परमात्मा ब्रह्म में जब मन, बुद्धि, प्राण तथा ज्ञानेन्द्रियाँ स्थिर हो जायेगी तब अनायास ही ब्रह्म की प्राप्ति हो जायेगी ॥३००॥
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प्राण हमारा पीव सौं, यों लागा सहिये ।
पुहुप वास घृत दूध में, अब कासौं कहिये ॥३०१॥
पाहण लोह बिच वासदेव, ऐसे मिल रहिये ।
दादू दीन दयाल सौं, संग हि सुख लहिये ॥३०२॥
जैसे फूलों में गन्ध, दूध में घी या पत्थर और लोहे में अग्नि मिली रहती है, उसी तरह यह जीव भी दयालु परमात्मा के साथ यदि मिल जाय अर्थात् अभिन्न हो जाय तो ब्रह्मसाक्षात्कार हुआ समझना चाहिये । उपाधिकृत स्वल्प भेद भी बीच में नहीं रहना चाहिये ॥३०१-३०२॥
(क्रमशः)

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