शनिवार, 16 मार्च 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*राम राज कोई भिड़ै न भाजै,*
*सुस्थिर रहणा बैठा छाजै ॥*
*अलख निरंजन और न कोई,*
*मित्र अम्हारा दादू सोई ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. २०१)
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साभार ~ Shiro mani devrishi narad ji

अस्तित्व के प्रति प्रेम का भाव ही भक्ति है, अनन्य भक्ति में बुद्धि का आत्यंतिक लय हो जाता है। बुद्धि के आत्यंतिक लय से परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है। भक्त इसी साक्षात्कार को मोक्ष कहते हैं। ये ही निर्वाण है। "मैं" का मिट जाना निर्वाण है। परमात्मा परिपूर्ण रुप से हमारे भीतर रह जाए और हम न रहें; हमारा होना पूरी तरह से हट जाए, हमारी छाया भी न बचे, ये ही मोक्ष है।
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जब भक्त अनन्यभाव को उपलब्ध हो जाता है, तब तन्मयी बुद्धि का जन्म हो जाता है, फिर भी शरीर में रहता क्योँ है? क्योँकि शरीर तो है ही इसीलिये कि वासनाएं हैं, अहंकार है। मनुष्य शरीर में है क्योँकि अहंकार के साथ मनुष्य ने संबंध बनाया है। परन्तु जिसका अहंकार से संबंध टूट गया, उसका शरीर से संबंध क्यों नहीं टूट जाता? वह विराट में लीन क्यों नहीं हो जाता? फिर रुका क्यों रहता है?
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क्या है जो उसे रोके रखता है? 
सब वासनाएं गईं, अहंकार गया, बुद्धि गई, आंगन आकाश हो गया, व्यक्ति समष्टि हो गया; फिर अब क्या उसे रोके हुए है? फिर भी भक्त जीवन-मुक्त होकर कुछ समय रुकता है, कुछ वर्षों रुकता है, ये कैसे होता है? साधारणतः मनुष्य शरीर में होता है कि उसकी वासनाएं हैँ। वासना के कारण ही जन्म है, वासना न हो तो शरीर में का कोई कारण नहीं है।
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भक्त जब अनन्य बुद्धि को उपलब्ध होता है, तो उसके सारे कर्म क्षय हो जाते हैं, उसका अहंकार समाप्त हो जाता है, परन्तु भक्त के शरीर की आयु तो अनन्यभाव के पहले ही निर्धारित हो चुकी थी। जिस क्षण जन्म हुआ, उसी क्षण शरीर की आयु निर्धारित हो गई। इस निर्धारण का अर्थ है, माता, पिता के माध्यम से जो शरीर मिला है उसकी उम्र तय हो गई कि सत्तर साल जीवन है। फिर चालीस साल की उम्र में ज्ञान को उपलब्ध हो गए, शरीर में रहने का कोई कारण न रहा।
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परन्तु शरीर की अपनी आयु है, जो अनन्यबुद्धि से समाप्त नहीं होती। शरीर का उससे कोई संबंध नहीं है। भक्त परमात्मा मे पूर्णरुपेण लीन होकर थोड़े वर्षों शरीर में रुका रहता है। परन्तु अब भाव-दशा बदल गई, "मैं" -भाव न रहा। ये शरीर मेरा है, ये भाव न रहा। अब तो शरीर मे परमात्मा का निवास है। जब कोई परम अनुभूति को उपलब्ध होता है तो बारंबार स्वयं को ही नमस्कार करता है। क्यों? क्या ये विक्षिप्तता है? स्वयं रहा नहीँ, अब तो सब जगह परमात्मा है, स्वयं के भीतर भी।

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