शनिवार, 16 मार्च 2019

= *पतिव्रता का अंग ६६(३३/३६)* =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*सो उपज किस काम की, जे जण जण करै कलेश ।*
*साखी सुन समझै साधु की, ज्यों रसना रस शेष ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**पतिव्रता का अंग ६६**
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साहिब सौं पैदा भये, साहिब सों नापैद१ । 
रज्जब तिस की बंदगी, दूजे की क्या कैद ॥३३॥ 
परमात्मा से उत्पन्न हुये हैं और परमात्मा से ही नष्ट१ होंगे तब उसी की भक्ति करना चाहिये, दूसरे की कैद में क्यों पड़ना है ? 
फरद१ खुदा की बन्दगी२, सुन्नत३ किसकी होय । 
रज्जब यूं हैरान है, कछु साहबि है दोय ॥३४॥ 
अद्वितीय१ परमात्मा की भक्ति२ करना है, चाहे भक्ति करने की रीति३ किसी की भी हो, जो कुछ लोग अपनी अपनी रीति आग्रह करते हैं कि ऐसे ही करो, उसे देखकर आश्चर्य होता है, क्या परमात्मा दो हैं ? किसी भी रीति से भक्ति करो भक्त उसी एक को ही प्राप्त होगा । 
कहै नमाज१ खुदाय की, नमैं सु मक्कै ओर । 
रज्जब यूं२ हैरान है, कछु अलह पैठा३ गौर ॥३५॥ 
कहते तो हैं खुदा की उपासना१ करते हैं और मस्तक नमाते हैं मक्का की ओर, ऐसा२ देखकर आश्चर्य होता है, क्या अल्लाह कब्र में घुसा३ हुआ है ? 
रज्जब साँई सुमिरतों, सिध साधक सब हस्त । 
जैसे सलिता समुद्र सौं, अचई१ आनि२ अगस्त ॥३६॥ 
जैसे अगस्त्य समुद्र को पान करते करते उसमें आने वाली अन्य२ नदियों का जल भी पान१ कर गये थे, वैसे ही परमात्मा का स्मरण करते करते साधक सिद्ध हो जाते हैं, उनके हाथ में सब सिद्धियाँ भी आ जाती हैं । 
(क्रमशः)

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