शुक्रवार, 22 मार्च 2019

= *पतिव्रता का अंग ६६(५३/५६)* =

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卐 सत्यराम सा 卐
*भँवरा लुब्धी बास का, मोह्या नाद कुरंग ।*
*यों दादू का मन राम सौं, ज्यों दीपक ज्योति पंतग ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**पतिव्रता का अंग ६६**
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सारँग१ सीप सरोज२ के, प्रतिव्रत देखहु दीठ३ । 
त्यों रज्जब रहि राम सौं, ब्रह्माण्ड पिंड दे पीठ ॥५३॥ 
चातक१ पक्षी, सीप और कमल२ के प्रतिव्रत को अपनी दृष्टि३ से देखो चातक तथा सीप स्वाति बिन्दु बिना अन्य जल नहीं पीते, चन्द्रमुखी तथा सूर्य मुखी कमल चन्द्र और सूर्य के अभाव में नहीं खिलते, वैसे ही ब्रह्माण्ड तथा शरीर को पीठ देकर अर्थात ब्रह्माण्ड के विषयों के राग को और शरीराध्यास को त्यागकर राम से प्रतिव्रत रक्खो । 
रज्जब दोस्त दीप का, शशि संतोष न भान । 
जा सौं रत तासौं रजू१, लघु दीरघ नहिं जान ॥५४॥ 
दीपक के मित्र पतंग को चन्द्र-सूर्य से सन्तोष नहीं होता, अत: यह निश्चय जानो, जिसकी जिसमें प्रीति होती है वह उसी से प्रसन्न१ होता है अन्य से नहीं, वह चाहे छोटा हो या बड़ा । 
लघु दीरघ समझै नहीं, प्राण प्रीति तहँ जाय । 
देख दिवाकर१ को तजै, दीप पतंग समाय ॥५५॥ 
प्राणी की जहाँ प्रीति होती है, वहाँ ही जाता है, यह छोटे बड़े का विचार नहीं करता, देखो, पतंग सूर्य१ को छोड़कर दीपक में ही पड़ता है । 
सुहागै सोना मिलै, कंचन अमिल कपूर । 
देखो किहिं ठाहर निकट, किहिं ठाहर सों दूर ॥५६॥ 
सोना सुहागा में मिलता है किन्तु वही सोना कपूर में नहीं मिलता, वैसे ही देखो, प्राणी किसी के पास रहता है और किसी से दूर रहता है । 
(क्रमशः)

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