शनिवार, 9 मार्च 2019

= *पतिव्रता का अंग ६६(९/१२)* =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मनसा वाचा कर्मना, अंतर आवै एक ।*
*ताको प्रत्यक्ष राम जी, बातें और अनेक ॥*
=============== 
**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
.
**पतिव्रता का अंग ६६**
.
पन्नग१ रहै पाताल में, अनल पंखि आकाश । 
त्यों बंदे२ वस्तु हिं लगे, दासातन३ में दास ॥९॥ 
सर्प१ पाताल में रहते हैं, अनल पक्षी आकाश में रहते हैं, दास सेवा२ में लगे रहते हैं, वैसे ही भक्त३ भगवान रूप वस्तु के चिन्तन में ही लगे रहते हैं । 
दुनियाँ दिल दर्पण मई, सर्वरूप सम भाय । 
भो मन भया मुदाज शिल, मित्र मोर दरसाय ॥१०॥ 
सांसारिक प्राणियों के मन तो दर्पण रूप हैं, जैसे दर्पण के सामने आने पर सभी वस्तु अपने आकार के समान ही भासती है, वैसे ही सांसारिक प्राणियों के मन के सामने आने पर शत्रु-शत्रु रूप से और मित्र-मित्र रूप से भासते हैं इसी प्रकार सर्व भिन्न भिन्न भासते हैं, किन्तु मेरा मन तो मुदाज शिला(दर्पण के समान प्रतिबिम्ब पड़ने वाले पत्थर) के समान हो गया है, जैसे मुदाज शिला के सामने कोई भी आवे उसमें तो उसके मित्र मोर का प्रतिबिम्ब रहता है, वैसे ही मेरे मन के सामने कोई भी आवे इसमें तो मेरा मित्र ब्रह्म ही दीखता है । विशेष विवरण - मुदाज के सामने मोर आ जय तो वह पत्थर पानी हो जाता है और मोर उसे पान कर जाता है, वैसे ही संत को ब्रह्म साक्षात्कार होता है तब उसका जीवत्व भाव नष्ट हो जाता है और संत ब्रह्म में मिल जाता है । 
रज्जब माया ब्रह्म मध्य, ठिक पावे है ठौर । 
निश्चय बिन नर हरि निकट, बैठण लहै न और ॥११॥ 
पतिव्रत से तो माया तथा ब्रह्म में ठीक स्थान मिलता है, पतिव्रत रूप निश्चय बिना अन्य प्रकार से तो भगवान् अत्यन्त निकट होने पर भी उनमें स्थित होने का स्थान नहीं मिलता । 
एक मिल्यूं सारे मिलै, सब मिल मिल्या न एक । 
तातें रज्जब जगत तज, बूझो१ बड़ा विवेक ॥१२॥ 
एक परमात्मा मिल जाते हैं तो सभी मिल जाते हैं और परमात्मा नहीं मिलते तो सब मिलने पर भी एक भी नहीं मिलता, इसलिये जगत के राग को छोड़कर महान् विवेक द्वारा परमात्मा को मिलने का ही यथार्थ साधन समझो । 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें