शनिवार, 2 मार्च 2019

= *अन्तकाल अन्तराय ब्यौरा का अंग ६५(१/४)* =

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卐 सत्यराम सा 卐 
*देह रहै संसार में, जीव राम के पास ।*
*दादू कुछ व्यापै नहीं, काल झाल दुख त्रास ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*अन्तकाल अन्तराय ब्यौरा का अंग ६५* 
इस अंग में अंत समय में काल क्या विघ्न करता है, इसका विवरण कर रहे हैं - 
कृष्ण दुर्वासा के शबद, जल जमुना दी बाट । 
त्यों अंतर अंतक समय, पुनि निरसंध सु ठाट ॥१॥ 
कृष्ण और दुर्वासा के वचन से यमुना जल ने फटकर मार्ग दिया था किन्तु पुन: पूर्ववत ही संधि रहित मिल गया था, वैसे ही काल आने के समय जीवात्मा और स्थूल शरीर को अलग अलग कर देता है किन्तु पुन: उनका पूर्ववत ही मिलनरूप ठाट हो जाता है, बस इतना ही काल विघ्न करता है और आत्मा का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता । 
दृष्टान्त : गोपियाँ यमुना पार दुर्वासा के दर्शनार्थ जाना चाहती थीं, किन्तु यमुना के अथाह जल से निकलना कठिन जान कर श्री कृष्ण से प्रार्थना की, श्री कृष्ण ने कहा - यमुना तट जाकर कहो - "कृष्ण ब्रह्मचारी है तो मार्ग दे दो ।" गोपियों ने जाकर कहा, यह सुनकर यमुना जल फट गया, गोपियाँ निकल कर दुर्वासा के पास गई दर्शन करके भारी मात्रा में खाद्य सामग्री ले गई थी । सो सब भेंट रक्खी दुर्वासा उस सब सामग्री को उसी समय खा गये, गोपियाँ लौटने लगी तब प्रार्थना की - हम यमुना पार कैसे जायें, दुर्वासा - "आयीं कैसे थीं ?" गोपियों ने उक्त श्री कृष्ण का वचन सुना दिया । दुर्वासा बोले - तट पर जाकर कहो - दुर्वासा अल्पाहारी है तो मार्ग दे दो, गोपियों ने वैसा ही किया, यमुना जल ने मार्ग दे दिया, यही कथा इस साखी में दृष्टान्त रूप में कही है । 
भाव भूमि हलचल सु ह्वै, काल कष्ट भूचाल । 
धर्म धातु धक्का नहीं, जन रज्जब थिर माल ॥२॥ 
भूचाल के समय पृथ्वी हिलती है किन्तु उसमें रहने वाली धातुओं की कुछ भी हानि नहीं होती, वह माल पृथ्वी में ही स्थिर रहता है वैसे ही काल कष्ट आने पर अन्त:करण के भाव से ही हल चल होती है, उसके धर्म की हानि नहीं होती, धर्म-धन ज्यों का त्यों स्थिर रहता है, इतना ही काल से विघ्न होता है । 
रज्जब राहु केतु रवि रूप लिये, जल१ चल२ लिई न जाय । 
त्यों अंतक३ वश वपु दरसै, आतम भाव समाय ॥३॥ 
राहु-केतु ने चन्द्र-सूर्य का रूप तो बना लिया किन्तु उनका तेज१ तथा चाल२ तो नहीं ले सके वैसे ही काल३ के वश स्थूल शरीर ही देखा जाता है, जीवात्मा तो अपने भावानुसार ही जाता है तथा समा जाता है । 
रूई बनौला खोसिये१, ज्यों चरखी तल आय । 
त्यों पिंड प्राण यम करि जुदे, बिच वित लिया न जाय ॥४॥ 
चरखी रूई से बिनौला छीन१ कर नीचे डाल देती है, किन्तु रख नहीं सकती, वैसे ही यम शरीर और प्राण को अलग कर देता है किन्तु आत्म-धन को नहीं ले सकता । 
(क्रमशः)

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