शुक्रवार, 8 मार्च 2019

= *पतिव्रता का अंग ६६(५/८)* =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐 
*अनेक चंद उदय करै, असंख्य सूर प्रकास ।*
*एक निरंजन नांव बिन, दादू नहीं उजास ॥*
=============== 
**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
.
**पतिव्रता का अंग ६६**
.
यथा नापिगा१ नीर ले, सिन्धु समापत२ जांहि । 
त्यों रज्जब सर्वस्व ले, सौंपै साहिब माँहिं ॥५॥ 
जैसे सभी नदियाँ१ अपना सब जल समुद्र को देकर तथा समुद्र में मिलकर समाप्त२ हो जाती हैं, वैसे ही अपना सर्वस्व प्रभु को समर्पण करके भक्त प्रभु में ही मिल जाते हैं । 
रज्जब रमता राम तज, जाय कहाँ किस ठौर । 
सकल लोक एक हि धरणि, नहिं साहिब कोउ और ॥६॥ 
सभी लोकों में एक ही तो पृथ्वी है, और स्वामी भी राम के बिना अन्य कोई नहीं है, तब रमता राम को त्याग कर कोई जाये तो कहाँ और किस स्थान पर जाये ? 
रज्जब राजी एक सौं, दूजा दिल न समाय । 
देखो देही एक में, द्वै जीव रहै न आय ॥७॥ 
हम तो एक परमात्मा में ही अनुरक्त हैं, देखो, एक शरीर में दो जीव आकर नहीं रहते, वैसे ही हमारे मन में प्रभु से भिन्न दूसरा नहीं समाता । 
एक आतमा राम इक, एक हि हित चित लाय । 
दूजा दोस्त क्यों करै, दिल दीन्हे नहिं दोय ॥८॥ 
एक ही आत्मा है, एक ही राम है, एक ही में चित्त का प्रेम होता है, अब दूसरा मित्र कैसे बनावे, प्रभु ने दो दिल दिये ही नहीं, अत: हमारा मित्र तो एक राम ही है । 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें