रविवार, 17 मार्च 2019

परिचय का अंग ३१२/३१६


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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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बेखुद खबर होशियार बाशद, खुद खबर पैमाल ।
बेकीमत मस्तान गलतान, नूर प्याले ख्याल ॥३१२॥
बुद्धिमान पुरुष देहाध्यास को छोड़, उस अमूल्य परमात्मज्ञान में डूबा हुआ अन्त में ब्रह्मरूप हो जाता है । अतः सावधान मन से ब्रह्म में उसकी वृत्तियाँ लीन कर के संसार में अनात्मभावना करता हुआ ब्रह्मानन्दरस का पान करे ॥३१२॥
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दादू माता प्रेम का, रस में रह्या समाइ ।
अन्त न आवै जब लगै, तब लग पीवत जाइ ॥३१३॥
प्रेम का प्यासा भक्त हरिप्रेम में डूबा हुआ प्रेमरूप ही हो जाता है । जब तक तृप्ति नहीं होती तब तक उस हरिरस को पीता ही जाता है और तृप्ति न होने से भक्त का रसपान भी नहीं छूटता । अब भक्त अपने दिन-रात हरिरस पीता हुआ व्यतीत करता है । बीच में कभी विश्राम नहीं करता । अतः भक्त का वह प्रेम फिर स्वाभाविक हो जाता है । तथा भक्त की भगवद्दर्शन की आशा भी निवृत्त नहीं होती ।
भक्ति-रसायन में लिखा है - मुझ में न भगवान् का प्रेम है, न श्रवण-मननादिभक्ति ही है । न वैष्णवों के लक्षण हैं । न ज्ञान है न शुभ कर्म ! महान् आश्चर्य है, मेरे प्राण अब भी नहीं निकलते । हे गोपीजनवल्लभ ! हीन को भी उत्तम बना देने वाली, आपके विषय में मेरी बद्धमूला आशा ही, आपकी भक्ति की प्राप्ति हेतु मुझको निरन्तर प्रयत्नशील बनाये रखती है ।
आशाबन्ध का लक्षण वहाँ यह लिखा है- “भगवत्प्राप्ति की दृढ़ सम्भावना ही ‘आशाबन्ध’ कहलाता है ॥३१३॥”
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पीया तेता सुख भया, बाकी बहु वैराग ।
ऐसे जन थाके नहीं, दादू उनमनि लाग ॥३१४॥
प्रेमी भक्त जब तक प्रेमरस का पान करता रहता है तब तक आनन्द में डूबकी लगाता रहता है; परन्तु उसको तृप्ति नहीं होती । उस अतृप्ति से विराग पैदा होता है । यहाँ विशिष्ट राग को ही ‘विराग’ कहते हैं । इस अवस्था में साधक का प्रभुप्रेम में अधिक भाव पैदा हो जाता है । ‘भाव’ का लक्षण भक्तिरसायन में लिखा है- “अन्तःकरण को अत्यन्त द्रवीभूत कर देने वाला तथा अत्यधिक ममता से युक्त सान्द्रभाव को ही विद्वानों के मत में ‘प्रेम’ कहते हैं ।” उस विशिष्ट राग से उन्मनीभाव की प्राप्ति हो जाती है ।
उन्मनीभाव का लक्षण यह है- “साधक के अन्तःकरण में एक अर्थ से दूसरे अर्थ की वृत्ति बनती रहती है । यह निराधार व निर्विकार वृत्ति होती है ।” विषय विकार रहित अन्तःकरण की उदासीन वृत्ति को ही ‘उन्मनीभाव’ कहते हैं ।
योगशास्त्र में यह अन्तर्लक्ष्य = परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा न होने से केवल ब्रह्म की ही वृत्ति बनती है । बाहर भी द्वैत के न होने से वहाँ भी ब्रह्मदृष्टि ही बनी रहती है ।
उन्मनीभाव का, हठयोगदीपिका में यह लक्षण लिखा है - तत्त्व ही बीज है । ‘तत्त्व’ से यहाँ चित्त का ग्रहण होता है, क्योंकि चित्त ही उन्मनी अवस्थारूप अंकुर के आकार को प्राप्त हो जाता है । प्राण अपान का एकतारूप हठ ही क्षेत्र है । क्योंकि क्षेत्र के समान प्राणायाम में उन्मनीभाव रूप कल्पलता उत्पन्न होती है । यहाँ उदासीनता(परम वैराग्य) ही जल है । क्योंकि परम वैराग्य ही उन्मनी कल्पलतोत्पत्ति का कारण है । समस्त इष्ट की साधिका होने से इस ‘उन्मनी’ को कल्पलता कहते हैं ॥३१४॥
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निकट निरंजन लाग रहु, जब लग अलख अभेव ।
दादू पीवै राम रस, निहकामी निज सेव ॥३१५॥
साधक ! जैसे अन्य हरिभक्त निष्काम भावना से इन्द्रियातीत ब्रह्म में स्थित होकर नामामृत का पान करते हैं; उसी तरह तूं भी निष्काम होकर ब्रह्मज्ञान द्वारा उसके समीप पहुँच जा ॥३१५॥
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राम रटणि छाड़ै नहीं, हरि लै लागा जाइ ।
बीचैं ही अटकै नहीं, कला कोटि दिखलाइ ॥३१६॥
साधक भगवान् का भजन करते हुए मायाकृतविघ्नों में न घबराता हुआ बीच में ही भजन का त्याग नहीं करता । अपितु भगवद्भजन में उसकी लालसा बढ़ती ही जाती है तथा मायाकृत चमत्कारों को मिथ्या मानता हुआ अधिक भगवान् की प्राप्ति के लिये यत्न करता रहता है ।
भागवत में मायाकृत चमत्कार का वर्णन इस प्रकार है- “माया कभी धूल और धूम के समान अन्धकार दिखाती है, कभी सूर्य विद्युत् अग्नि तथा जुगनूं के समान प्रकाश दिखाने लगती है । ब्रह्म का प्रकाश होने से पूर्व ऐसे लक्षण प्रकट होने लगते हैं; किन्तु साधक इनको मायिक मानकर, इनमें आसक्त नहीं होता ॥३१६॥
(क्रमशः)

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