शनिवार, 9 मार्च 2019

परिचय का अंग २७६/२७९

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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संतप्रवर महर्षि श्रीदादूदयाल जी महाराज बता रहे हैं कि ::
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प्रेम लहर की पालकी, आतम बैसे आय ।
दादू खेले पीव सौं, यहु सुख कह्या न जाय ॥२७६॥
प्रेमलहरी चार प्रकार की होती है : पहली सामान्य भक्ति, दूसरी साधनात्मिका, तीसरी भावाश्रिता और चौथी प्रेमनिरूपिका ।
सर्व प्रथम पहली सामान्यभक्ति का लक्षण बता रहे हैं :: किसी भी प्रकार की अन्य कामनाओं से रहित तथा निर्विशेष ब्रह्म के स्वरूपानुसन्धान आदि ज्ञान से अनाच्छादित तथा यज्ञादिकर्मों से रहित सर्वथा अनुकूल भावना से भगवान् का मन, वाणी तथा कर्म से अनुशीलन(सेवन) करना उत्तम भक्ति है ।
यहाँ रहस्य यह है कि ब्रह्म के लक्षणों की तरह भक्ति के भी स्वरूप तथा तटस्थ लक्षण होते हैं । ‘आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनम्’ - यह भक्ति का स्वरूपलक्षण है तथा ‘अन्याभिलषिताशून्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम्’- यह तटस्थ लक्षण है । इस विषय में ‘नारद-पाञ्चरात्र’ में भी यही लक्षण किया है अर्थात् सर्वविधफलकामना रूप उपाधि से रहित तन्मयता से विशुद्ध(ज्ञान, कर्म, संस्कारादि रहित) समस्त इन्द्रियों द्वारा भगवान् कृष्ण की सेवा ‘भक्ति’ कहलाती है ।
ज्ञान से मुक्ति होना सुलभ है, तथा यज्ञादिक के पुण्य से भोग भी सुलभ हो जाते हैं, परन्तु हजारों साधनों से भी हरिभक्ति दुर्लभ मानी जाती है ।
भागवत में भी भक्ति की दुर्लभता बताते हुए लिखा है - “हे प्रिय ! भगवान् अपने भक्तों को भोग तो दे देते हैं, परन्तु भक्ति योग नहीं देते।” वह भक्ति १. साधन रूपा, २. भावरूपा तथा ३. प्रेमरूपा भेद से तीन प्रकार की होती है ।
१. जो साधक भक्त के व्यापार से निष्पन्न होने वाली हो तथा जिसके द्वारा भावरूपा भक्ति सिद्ध हो सकती हो, वह ‘साधनभक्ति' कहलाती है ।
२. हृदय में नित्य सिद्ध(पहले से ही बीजरूप में विद्यमान) प्रेमादि रूप भाव का प्राकट्य(अभिव्यक्ति) ही यहाँ ‘साध्यभाव’ पद से अभिप्रेत है ।
तीसरी भावलहरी का लक्षण यह है - प्रेमरूपी सूर्य की किरणों के समान अपनी कान्ति द्वारा चित्त के द्रवीभाव का उत्पादक शुद्ध सत्त्वविशेष(चित्त की विशुद्ध सत्त्वप्रधान अवस्था) ही पूर्वोक्त सामान्य भक्ति ही ‘भाव’ नाम से कही जाती है । अतएव नारदादि तन्त्रशास्त्रों में प्रेम की प्रथम अवस्था को ही 'भाव’ नाम से कहा गया है । इस प्रकार की चित्त की विशेष अवस्था को ही ‘चित्तवृत्ति’ कहते हैं । इस अवस्था में भगवान् का ध्यान करते करते लम्बे श्वास तथा आँखों में आँसु झरने लगता है । शरीर पुलकित हो जाता है ।
चतुर्थी प्रेमभाक्ति का लक्षण यह है - अन्त:करण को अत्यन्त द्रवीभूत कर देने वाला और अत्यधिक ममतायुक्त सान्द्रभाव को ही विद्वान् लोग प्रेमाभक्ति कहते हैं ।
पाञ्चरात्र ग्रन्थों में भी लिखा है -
अन्यों के साथ ममता न रखकर केवल भगवान् में ही ममता हो उस भक्ति को प्रह्लाद, उद्धव, भीष्म, नारद आदि भक्तों ने ‘प्रेमाभक्ति’ नाम से कहा है ।
श्रीदादू जी महाराज ने भी ‘प्रेमलहरी की पालकी’ इस साखी पद के द्वारा प्रेमाभक्ति का ही वर्णन किया है कि जो साधक प्रेमलहरी में स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मानन्दानुभव की क्रीड़ा करता है । वही “प्रेमलहर की पालकी में झूलता” है । यह क्रीड़ा मन-वाणी-का विषय नहीं, किन्तु अपने अनुभव से ही जानी जाती है ।
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पूजा-भक्ति सूक्ष्म सौंज
देव निरंजन पूजिये, पाती पंच चढ़ाइ ।
तन मन चन्दन चर्चिये, सेवा सुरति लगाइ ॥२७७॥
अपनी पाँचों इन्द्रियाँ तथा मन वाणी शरीर भगवान को समर्पण कर निरञ्जन देव की अखण्ड चिन्तनरूप सेवा करें ।
श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है - भक्त मुझ में ही अपने मन को लगाकर नित्य योग में युक्त हो परम श्रद्धा से मेरी उपासना करता है, वह मुझे बहुत उचित लगता है । अपनी बुद्धि तथा मन मुझ में ही लगाकर मुझको भजने वाले यहाँ से आगे जाकर अवश्य मिल जायेगे - इसमें कोई सन्देह नहीं ।
हे अर्जुन ! तूं सभी कर्म शुद्ध हृदय से मुझमें अर्पित कर मेरे अनुकूल हुआ, कर्मयोग का अवलम्बन कर निरन्तर मुझ में ही अपना चित्त लगाये रख ।
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भ्रम विध्वंस
भक्ति भक्ति सबको कहै, भक्ति न जाने कोय ।
दादू भक्ति भगवंत की, देह निरंतर होय ॥२७८॥
‘भक्ति करो, भक्ति करो’ - इस कथनमात्र से भक्ति नहीं होती, किन्तु आन्तरिक भावमय साधनों द्वारा ही स्वहृदयस्थ परमात्म की भक्ति होती है । इसलिये साधक को साधननिष्ठ होना चाहिये ।
“मन द्वारा हरि-सेवाकर वाणी और मन से अगम्य परमात्मा को साक्षात् प्राप्त हो गये ।”
“जो हरि-सेवा का भाव अपने हृदय में धारण करता है । उसको अन्त:शुद्धि तथा बहि: शुद्धि और शान्ति आदि गुण स्वत: ही प्राप्त हो जाते हैं ।”
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देही माहीं देव है, सब गुण तैं न्यारा ।
सकल निरंतर भर रह्या, दादू का प्यारा ॥२७९॥
मेरा प्रिय प्रभु देहस्थित रहता हुआ भी सर्वगुण रहित, ज्योतिर्मय तथा सभी शरीरों में स्थित है ।
“परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है, वह स्वयम्प्रकाश, सबका स्वामी, जिसमें सभी भूत निवास करते हैं, जो स्वराट् और सर्वव्यापी है, वही मैं हूँ । वह निर्गुण, निष्क्रिय, नित्य, निर्विकल्प, निरञ्जन, निर्विकार एवं निराकार है, वही मैं हूँ ।
(क्रमशः)

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