सोमवार, 25 मार्च 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*कोमल कठिन,* 
*कठिन है कोमल, मूरख मर्म न बूझै ।*
*आदि रु अंत विचार कर, दादू सब कुछ सूझै ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विचार का अंग)*
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साभार ~ Archana Maheshwari
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*"नरहरि कैसे भगति करूं मैं तोरी, चंचल है मति मोरी !'*
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यह शब्दावली तो भक्त की है। और यह प्रश्न साधक का है, भक्त का नहीं। इसे तुम स्पष्ट अलग-अलग कर लोगे तो सुलझाव हो जायेगा। अगर तुम साधक होने के मार्ग पर हो तो भक्ति का कोई सवाल नहीं है। "नरहरि' का कोई सवाल नहीं है। तब तो तुम हो और तुम्हें अपने प्राणों को अपनी ही ऊर्जा से शुद्ध करना है। तब तुम अकेले हो; कोई संग-साथ नहीं है।
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लेकिन, अगर तुम भक्ति के मार्ग पर हो तो "नरहरि' तुम्हें घेरे खड़ा है; तुम्हारी श्वास-श्वास में छिपा है। तुम जब चंचल होते हो तब वही तुम्हारे भीतर चंचल हो रहा है। ये लहरें भी उसी की हैं,यह सागर भी उसी का है।
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यह सागर और लहर में फासला क्यों करते हो? लहर हो सकती है सागर के बिना? सागर हो सकता है लहर के बिना? सागर होगा लहर के बिना तो मुर्दा होगा। उसमें प्राण ही न होंगे। उसमें जीवन का कोई लक्षण न होगा। और लहरें हो सकती हैं सागर के बिना? असंभव। न तो लहरें हो सकती हैं सागर के बिना; अगर होंगी तो किसी चित्र में चित्रित होंगी, वास्तविक न होंगी, कागजी होंगी। और सागर नहीं हो सकता लहरों के बिना; अगर होगा तो मुर्दा होगा। उसमें कोई जीवन न होगा। जीवन होगा तो हवाएं भी उठेंगी और जीवन होगा तो तरंगें भी उठेंगी। और जितना विराट सागर होगा उतने विराट तूफानों को झेलने की झमता होगी। ये लहरें भी उसी की हैं। यह मन भी उसी का ! हम भी उसी के! यह तन भी उसी का !
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भक्त की भाषा अलग है। इस प्रश्न में उलझन है। यह प्रश्न साफ नहीं है। और जिसने भी ये दो पंक्तियां रची होंगी, उसके मन में भी साफ नहीं थी बात कि वह क्या कह रहा है। उसके मन में खिचड़ी रही। प्रश्न तो साधक का था, और भाषा भक्त की थी। ऐसी उलझन में जो भी पड़ेगा वह बड़े संकट में पड़ जाता है--आत्मसंकट में। उसका मन दो खंड़ों में बंट जाता है। वह टिकिट तो लेता है कलकत्ता जाने की और ट्रेन में बैठ जाता है बंबई की। तो वह सोचता है, टिकिट भी मेरे पास है; और वह सोचता है टिकिट-चैकर मुझे परेशान क्यों कर रहा है ! टिकिट उसके पास है, लेकिन उसे किसी और दिशा में जाना था। जहां वह जा रहा है, वहां की टिकिट उसके पास नहीं है।
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ऋग्वेद में एक परम वचन है: "ऋतस्य यथा प्रेत'; जो प्राकृतिक है, वही प्रिय है। जो स्वाभाविक है, वही शुभ है। *स्वभाव के अनुसार जीवन व्यतीत करो*। ऋतस्य यथा प्रेत ! यही लाओत्सु का आधार है: ताओ। पूरे ताओ को इस ऋग्वेद के एक छोटे-से सूत्र में रखा जा सकता है: ऋतस्य यथा प्रेत। जो प्राकृतिक, वही प्रिय। तुम श्रेय और प्रेय को तोड़ो मत। जो प्रीतिकर लग रहा है वही श्रेयस्कर है। प्रीतिकर लगना श्रेयस्कर की खबर है। कहीं पास ही श्रेय भी छुपा होगा। तुम श्रेय के द्वार को खोज लो।
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इसलिए वेदों का जो ऋषि है, वह कोई भगोड़ा नहीं है। उसने जीवन का निषेध नहीं किया है। जीवन का परम स्वीकार है। परमात्मा ने जो दिया है, वह प्रसाद है। वह उसकी भेंट है। उसका अस्वीकार कैसे हो? उसका त्याग कैसे हो? त्याग का तो अर्थ ही होगा: कि तेरी भेंट हम...राजी नहीं होते तेरी भेंट से ! तेरी भेंट, भेंट के योग्य नहीं ! तूने जीवन दिया, यह ले वापिस !
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दोस्तोवस्की के बड़े प्रसिद्ध उपन्यास "ब्रदर्स करमाझोव' में एक पात्र नाराज होकर ईश्वर से कहता है: यह अपनी टिकिट तू वापिस ले ले। यह जीवन हमें नहीं चाहिए ! सम्हाल अपने जीवन को ! जीवन को जो त्यागकर जा रहा है, वह यही कह रहा है कि ये फूल हमें न भाये, ये फूल हमें शूल सिद्ध हुए। यह तूने जो वर्षा की थी, यह अमृत की नहीं थी, जहर की थी। और यह तूने हमें जीवन दिया था, यह देने योग्य न था। तूने किसे धोखा देना चाहा?
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त्यागी यह कह रहा है कि हम छोड़ते हैं तेरे जीवन को; हमें आवागमन से छुटकारा चाहिए। त्यागी प्रकृति के विपरीत चलता है। वह नदी की धार के विपरीत लड़ता है। वह गंगोत्री की तरफ बहता है; भक्त गंगासागर की तरफ। भक्त कहता है, जहां ले जाये गंगा ! हम भी उसी के, गंगा भी उसी की, हवाएं भी उसी की। तो जहां भी पहुंचा देगा वहीं मंजिल होगी ! और हम कौन हैं मंजिल को तय करें ! तो अगर मन में तरंगें उठती हैं तो उन्हीं तरंगों में वह प्रभु के नाम को गुनगुनाता है।
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इसलिए भक्त तुम्हें गुनगुनाता मिलेगा। ज्ञानी तुम्हें मौन मिलेगा। ज्ञानी बाहर से ही मौन नहीं है, भीतर से भी चुप है। शब्द उठा कि संसार उठा। वह संसार से ही नहीं डर गया, शब्द से भी डर गया है। भक्त तुम्हें बाहर भी गुनगुनाता मिलेगा, भीतर भी गुनगुनाता मिलेगा। लहरें उसे स्वीकार हैं। वह लहरों को बदलने की कीमिया जानता है। उसने लहरें भी परमात्मा के चरणों में समर्पित कर दी हैं। वह इससे भयभीत नहीं होता। प्रकृति और उसके बीच कोई विरोध नहीं है। इनकार की भाषा उसे नहीं आती। वस्तुतः भक्त के लिए इनकार की भाषा में ही नास्तिकता छिपी है।
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इसलिए ऐसा तो हुआ कि अनेक ज्ञानी नास्तिक हुए; लेकिन एक भी भक्त नास्तिक नहीं हुआ। यह तुम थोड़ा सोचना।

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