मंगलवार, 19 मार्च 2019

= *पतिव्रता का अंग ६६(४१/४४)* =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू सुन्दरी देह में, साँई को सेवै ।*
*राती अपने पीव सौं, प्रेम रस लेवै ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**पतिव्रता का अंग ६६**
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पुहमि१ पड़या पाणी पिवहिं, पक्षी प्राण२ अनेक । 
रज्जब अंभ३ अकाश का, सो सारंग४ ले एक ॥४१॥ 
पृथ्वी१ पर पड़ा जल तो अनेक पक्षी पीते हैं किन्तु जो आकाश का जल३ स्वाति बिंदु है उसे तो एक चातक४ पक्षी ही पीता है, वैसे ही सगुण को तो अनेक प्राणी२ पतिव्रतापूर्वक भजते हैं, किन्तु निर्गुण को प्रतिव्रतापूर्वक कोई विरला ही भजता है । 
जतन१ सीप सुत२ का गहै, यूं मन राखे साध । 
सलिल शक्ति३ परसे४ नहीं, पूरण बुद्धि अगाध ॥४२॥ 
जैसे सीप मोती२ की रक्षा का साधन१ रखती है, समुद्र के जल को मोती से स्पर्श नहीं होने देती, वैसे ही पूर्ण तथा अगाध बुद्धि वाले संत मन को माया से बचाने का साधन ग्रहण करते हैं, जिससे उनके मन को माया३ नहीं छू४ सकती । 
चातक का पतिव्रत का गहैं, सीर१ स्वाति ही माँहिं । 
रज्जब सर सलिता भरे, ता को भावे नाँहिं ॥४३॥ 
संत चातक पक्षी का सा पतिव्रत ग्रहण करते हैं, जैसे चातक का साझा१ आकाश के स्वाति जल में होता है, पृथ्वी पर चाहे कितने ही तालाब, नदी, नद भरे हों तो उसे उनका जल अच्छा नहीं लगता, वैसे ही निर्गुण उपासक संत का साझा तो निर्गुण राम के भजन में ही होता है, सगुण चाहे कितना ही सुन्दर हो उसे प्रिय नहीं लगता । 
पानी सौं पतिव्रत गहै, मीन रहै मन लाय । 
रज्जब खेलै बहुत विधि, बाहर कदे न जाय ॥४४॥ 
मच्छी जल के साथ पतिव्रत ग्रहण करती है, सदा मन लगा कर जल ही में रहती है, जल के भीतर बहुत प्रकार से खेलती है, किन्तु जल के बाहर कभी भी नहीं जाती, वैसे ही संत प्रभु से पतिव्रत रखते हैं, उसी के चिन्तन में मन लगाकर रहते हैं, नाना सत्कर्म भी करते हैं किन्तु प्रभु का भजन नहीं छोड़ते । 
(क्रमशः)

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