रविवार, 10 मार्च 2019

परिचय का अंग २८०/२८३

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ महामंडलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज,श्री दादूद्वारा बगड,झुंझुनू ।
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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संतप्रवर महर्षि श्रीदादूदयाल जी महाराज बता रहे हैं कि ::
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*सूक्ष्म सौंज स्वरूप*
जीव पियारे राम को, पाती पंच चढ़ाय ।
तन मन मनसा सौंपि सब, दादू विलम्ब न लाय ॥२८०॥
हे जीव ! मैं तेरे को यही समझा रहा हूँ कि तू शीघ्र ही मन-वाणी-शरीर से जो भी कर्म करता है, वह सब ब्रह्म को अर्पण कर दे तथा ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, जो भगवान् के लिये ही, उसी को अर्पित कर दे ।
भागवत में लिखा है - शरीर वाणी, मन तथा बुद्धि द्वारा जो जो भी कर्म स्वभाव से होते हैं उन सबको नारायण को अर्पित कर दे ।
अपने मन से श्रीकृष्णचरणारविन्द का चिन्तन करो । वाणी से वैकुण्ठनाथ के गुणों का वर्णन करो । हाथो से मन्दिर में सफाई का काम करो । कानों से अच्युत भगवान् की कथा सुनो । नेत्रों से मुकुन्द भगवान के दर्शन करो । अङ्गों से भक्तो के अङ्गों का स्पर्श करो । ध्राण से भगवान् के चरणकमलों की गन्ध ग्रहण करो । रसना से तुलसीदल चरणामृत का पान करो । पैरों से भगवान् के लीलाक्षेत्रों में परिभ्रमण करो । मस्तक से भगवान् के चरणों में वन्दना करो और निष्काम भाव से भगवान की दासता स्वीकार को निष्काम भक्तों की तरह । इन सब कार्यों में कछ भी विलम्ब न करो ।
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*ध्यान-अध्यात्म*
शब्द सुरति ले सान चित्त, तन-मन मनसा माँहि ।
मति बुद्धि पंचों आतमा, दादू अनत न जाँहि ॥२८१॥
अध्यात्म ध्यान का स्वरूप बता रहे हैं । तत्त्वमस्यादि वाक्यों से जिसको ब्रह्मज्ञान प्राप्त नहीं होता वह निर्गुण उपासना के द्वारा स्वान्त:करण को शुद्ध करे तो निर्गुणोपासना से भी ब्रह्माज्ञान हो जाता है । उसके लिये साधक को अपनी ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, वाणी तथा शरीर- इन सब को प्रत्याहार द्वारा विषयों से हटाकर अपनी आत्मा में लगाना चाहिये ।
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दादू तन मन पवना पंच गहि, ले राखै निज ठौर ।
जहाँ अकेला आप है, दूजा नाहीं और ॥२८२॥
यह ब्रह्म हृदय में ही विराजता है, जहाँ पाँञ्चभौतिक पदाथों का प्रवेश भी असम्भव है । वहाँ तो निरज्जन ब्रह्म ही है उसी में सब वृत्तियों का लय करना चाहिये ।
उस समय वह साधक आनन्द में डूबा हुआ ब्रह्म के साथ रमण करता है । इसी अभिप्राय से श्री दादूजी महाराज ने लिखा है - सबद सुरति लै सानिचित इत्यादि ।”
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दादू यह मन सुरति समेट कर, पंच अपूठे आणि ।
निकट निरंजन लाग रहुँ, संग सनेही जाणि ॥२८३॥
यों, जब निर्गुणोपासना परिपक्व हो जायेगी, तब निर्विकल्प समाधि लग जायेगी। इस निर्विकल्प समाधि का भी निरोध हो जाने पर निर्बिज समाधि अनायास प्राप्त हो जायेगी ।
(क्रमशः)

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