बुधवार, 3 अप्रैल 2019

= *रस का अंग ६९(१/४)* =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐 
*अपणी जाणै आप गति, और न जाणै कोइ ।*
*सुमरि सुमरि रस पीजिये, दादू आनन्द होइ ॥* 
=============== 
**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
.
**रस का अंग ६९** 
**इस अंग में राम भजन रस विषयक विचार कर रहे हैं -** 
रज्जब रमि१ रमि राम सौं, पीवै प्रेम अघाय२ । 
रसिया रसमय३ ह्वै रह्या, सो सुख कह्या न जाय ॥१॥ 
वृत्ति द्वारा बारबार राम में स्थिर१ हो प्रेमपूर्वक तृप्त२ होकर राम भजन रस का पान करता है, इस प्रकार रस पान करने वाला रसिया रस रूप अर्थात राम रूप३ ही हो जाता है, उस समय जो सुख होता है वह वाणी द्वारा नहीं कहा जा सकता । 
निर्मल पीवै राम रस, पल पल पोषै प्रान । 
जन रज्जब छाक्या रहै, साधू संत सुजान ॥२॥ 
श्रेष्ठ बुद्धिमान संत प्रतिफल निर्मल राम-रस का पान करते हुये तृप्त रहते हैं और अन्य प्राणियों का भी शिक्षा तथा शुभ भावना द्वारा पोषण करते रहते हैं । 
परम पुरुष में पैठि१ कर, पीवै प्राण२ पियूख३ । 
रसिया रसमय४ ह्वै रह्या, अरु रस ही की भूख ॥३॥ 
संत प्राणी२ वृत्ति द्वारा परम पुरुष परमात्मा में प्रवेश१ करके ब्रह्मानन्द रूप अमृत३ का पान करता है, इस प्रकार रसपान करने वाला रसिया राम रूप४ ही होकर रहता है, फिर भी उसमें राम-रस पानकरने की अभिलाषा बनी रहती है । 
रसना लागी राम रस, हिली मिली१ ता माँहिं । 
जन रज्जब सो स्वाद सौं, कबहूं छूटे नाँहिं ॥४॥ 
जो जिह्वा राम-रस में लग गई है और उस रस में जल में मिश्री के समान घुलमिल१ गई है, वह रसना उस स्वाद से कभी भी अलग नहीं हो सकती । 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें