बुधवार, 3 अप्रैल 2019

= १३ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू कहतां सुणातां राम कह, लेतां देतां राम ।*
*खातां पीतां राम कह, आत्म कवल विश्राम ॥* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

संत कबीर ने कहा है : 
'उठूं —बैठूं सो सेवा !' मेरा उठना—बैठना ही प्रभु की सेवा है। 
'चलूं —फिरूं सो परिक्रमा !' अब मंदिर में जाकर परिक्रमा नहीं करता। क्या फायदा? ऐसा चलता—फिरता हूं उसमें प्रभु की ही परिक्रमा हो रही है, किसी और की तो परिक्रमा हो नहीं सकती, क्योंकि प्रभु ही तो है, कोई और तो है नहीं। उसके अतिरिक्त तो कुछ भी नहीं है।
'खाऊं—पीऊं सो सेवा।' मंदिर में लोग जब भगवान को भोग लगाते हैं, तो कहते हैं, सेवा कर रहे हैं। और कबीर कहते हैं कि मैं खुद ही खा पी लेता हूं वह सेवा है; क्योंकि भीतर बैठा तो भगवान ही है, उसी के लिए भोग लगा रहा हूं।
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जब जीवन के साधारण से कृत्य भी असाधारण की महिमा से मंडित हो जाते हैं; जब क्षुद्रतम दिखाई पड़ने वाली बात में भी विराट की झलक आ जाती है, जब अणु में ब्रह्मांड झलकने लगता— तब जीवन —मुक्ति।
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सारी देशना यही है। इसलिए संन्यास लें, लेकिन घर छोड़ कर भाग न जाएं ।संन्यास को अपने घर में लाएं, संन्यास इतनी बड़ी महाक्रांति है कि उसे अपने घर में लाएं। जहां हैं वहीं खींचें, वहीं पुकारें। घर मंदिर बने। जीवन का जो सहज क्रम है, उसको असहज न करें।
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उल्टा—सीधा करने से कुछ सार नहीं है। परमात्मा सीधे—सीधे उपलब्ध है। परमात्मा बहुत सरलता से उपलब्ध है। जरा सरल हो जाएं। जटिलता तुम्हारी है; परमात्मा की नहीं है। परमात्मा बहुत पास है, पास से भी पास है। परमात्मा हृदय की धड़कन से भी ज्यादा पास है। सच तो यह है, यह कहना कि परमात्मा पास है, ठीक नहीं; क्योंकि परमात्मा से जरा भी फासला नहीं है। पास में भी तो फासला हो जाता है। 
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जैसे हैं, यही प्रभु—पूजा, यही प्रभु—सेवा, यही परिक्रमा। सामान्य व्यवहार प्रार्थना है, ध्यान है। बस इतना ही करें कि प्रत्येक कृत्य को होश से, साक्षी— भाव से करने लगें।
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इन छोटी सी दो पंक्तियों में ज्ञान की परम व्याख्या समाहित है। इन दो पंक्तियों को भी कोई जान ले और जी ले तो सब हो गया। शेष करने को कुछ बचता नहीं। सांख्य के सूत्र ऐसे नहीं हैं कि पूरा शास्त्र समझें तो काम के होंगे। एक सूत्र भी पकड़ लिया तो पर्याप्त है। एक—एक सूत्र अपने में पूरा शास्त्र है। इस छोटे से लेकिन अपूर्व सूत्र को समझने की कोशिश करें।

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