मंगलवार, 16 अप्रैल 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*इक टग ध्यान रहैं ल्यौ लागे,*
*छाकि परे हरि रस पीवैं ।*
*दादू मगन रहैं रस माते,*
*ऐसे हरि के जन जीवैं ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. २७२)*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

एक ऐसी भी दशा है, जहां मुमुक्षा भी नहीं ले जाती। वहां जाने के लिए मुमुक्षा भी छोड़ देनी पड़ती है। इसे समझें।
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मुमुक्षा का अर्थ होता है : स्वतंत्र होने की आकांक्षा, मोक्ष की आकांक्षा। लेकिन मोक्ष का स्वभाव ऐसा है कि कोई भी आकांक्षा हो तो मोक्ष संभव न हो पाएगा। मोक्ष की आकांक्षा भी बाधा बन जाएगी। आकांक्षा मात्र बंधन बन जाती। धन की आकांक्षा तो बंधन बनती ही है, प्रेम की आकांक्षा तो बंधन बनती ही है, लेकिन मोक्ष की आकांक्षा, परमात्मा को पाने की आकांक्षा भी अंतिम बंधन है; आखिरी बंधन है।
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बड़ा स्वर्णनिर्मित है बंधन; हीरे—जवाहरातों जड़ा है। धन्यभागी हैं वे जिनके हाथों में मोक्ष का बंधन पड़ा हो, लेकिन है तो बंधन ही। यह खयाल कि मुक्त हो जाएं, बेचैनी पैदा करेगा। और यह खयाल कि मुक्त हो जावें, वर्तमान से अन्यथा ले जाएगा, भविष्य में ले जाएगा। यह तो वासना का फैलाव हो गया। नई वासना है, पर है वासना। सुंदर वासना है, पर है वासना।
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और बीमारी कितनी ही बहुमूल्य हो, हीरे—जवाहरातों जड़ी हो, इससे क्या फर्क पड़ता है? चाहे चिकित्सा—शास्त्री कहते हों कि बीमारी साधारण बीमारी नहीं है राजरोग है, सिर्फ राजाओं—महाराजाओं को होता है तो भी क्या फर्क पड़ता है? राजरोग भी रोग ही है। मोक्ष की वासना भी वासना है। इसे समझने की चेष्टा करें।
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मनुष्य बंधा क्यों है? बंधन कहां है? बंधन इस बात में है कि जो है, उससे राजी नहीं, कुछ और होना है। तो जो हैं उसमें तृप्ति नहीं। जहां है, जैसा है, वहां उत्सव नहीं। कहीं और होंगे तो नाचेंगे। यहां आंगन टेढ़ा है। आज तो नहीं नाच सकते। आज तो सुविधा नहीं है, कल नाचेंगे, परसों नाचेंगे। कल आता नहीं। कल ही नहीं आता तो परसों तो आएगा कैसे? रोज जब भी समय मिलता है वह आज होता है। और जो भी पास आ जाता है वहीं आंगन टेढ़ा हो जाता है।
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जीवन की धारा भविष्योमुख है। कल स्वर्ग में, मोक्ष में, कहीं और सुख है; यहां तो दुख है। वासना का अर्थ है : यहां दुख, सुख कहीं और। सुख सपने में, यथार्थ में दुख। तो सभी सपने को उतार लाने की चेष्टा करते हैं। स्वर्ग को उतारना है पृथ्वी पर या अपने को ले जाना है स्वर्ग में, लेकिन आज और अभी -और यहीं तो महोत्सव नहीं रच सकते। आज तो बांसुरी नहीं बजेगी।
और जिसकी बांसुरी आज नहीं बज रही वही बंधन में है। उसकी बांसुरी कभी नहीं बजेगी। या तो आज, या कभी नहीं। या तो अभी, या कभी नहीं।
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बंधन का अर्थ है, भविष्य से बंधे हैं। बंधन का अर्थ है, भविष्य की वासना की डोर खींचे लिए जाती है और आज मुक्त नहीं हो पाते। भविष्य बांधे है। वर्तमान मुक्त करता है। वर्तमान मुक्ति है। मोक्ष अभी है और संसार कल है।
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हमेशा सभी ने उलटी बात सुनी है कि संसार यहां है और मोक्ष वहां है।वास्तविकता ये है कि मोक्ष यहां है, संसार वहां है। अभी जो मौजूद है यही मुक्ति है। अगर इस क्षण में लीन हो जावें, तल्लीन हो जाएं, डुबकी लगा लें, तो मुक्त हो गए। अगर कल की डोर में बंधे खिंचते रहे तो पैर में जंजीरें पड़ी रहेंगी। कभी नाच न पाएंगे। जीवन में कभी आभार का, आशीष का क्षण न आ पाएगा।
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इसका अर्थ हुआ कि मुमुक्षा भी बंधन है। मोक्ष की आकांक्षा भी तो कल में ले जाती है। मोक्ष तो कभी होगा, मरने के बाद होगा, मृत्यु के बाद होता है। अगर जीवन में भी होगा तो आज तो नहीं होना है। बड़ी साधना करनी होगी, बड़े हिमालय के उत्तुंग शिखर चढ़ने होंगे। गहन अभ्यास, महायोग, तप, जप, ध्यान, फिर कहीं अंतिम फल की भांति आएगा मोक्ष। प्रतीक्षा करनी होगी। धीरज रखना होगा। श्रम करना होगा। मोक्ष फल की तरह आएगा।
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मोक्ष फल नहीं है, मोक्ष स्वभाव है। इसलिए मोक्ष कल नहीं है, मोक्ष अभी है, यहीं है। तो मुमुक्षा बाधा बनेगी। जो मुमुक्षा से भरा है वह कुतूहल से तो बेहतर है, जिज्ञासा से भी बेहतर है, लेकिन उससे भी ऊपर एक दशा है। मुमुक्षु के पार, वीत—मुमुक्षा की भी एक दशा है; जहां अब यह भी आकांक्षा न रही कि मोक्ष हो, स्वतंत्रता हो; जहां सारी आकांक्षाएं आमूल गिर गईं। संसार की तो मांग रही ही नहीं, परमात्मा की भी मांग न रही; मांग ही न रही।
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उस घड़ी अंतस में जो घटता है वही मोक्ष है। उस घड़ी जिसे जानते हैं वही परमात्मा है। उस घड़ी भीतर जो प्रकाश फैलता है—क्योंकि अब उस प्रकाश को बाधा डालनेवाली कोई दीवाल न रही—वही प्रकाश वास्तविक स्वभाव है।
मुमुक्षा के भी ऊपर जाना है।

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