शनिवार, 6 अप्रैल 2019

= *प्रेम का अंग ७०(१/४)* =

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卐 सत्यराम सा 卐 
*विरहनी को श्रृंगार न भावे,* 
*है कोई ऐसा राम मिलावे ॥टेक॥*
*विसरे अंजन मंजन चीरा,* 
*विरह व्यथा यहु व्यापै पीरा ॥१॥*
*नव-सत थाके सकल श्रृंगारा,* 
*है कोई पीड़ मिटावनहारा ॥२॥*
*देह गेह नहीं सुधि शरीरा,* 
*निशदिन चितवत चातक नीरा ॥३॥*
*दादू ताहि न भावे आन,* 
*राम बिना भई मृतक समान ॥४॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**प्रेम का अंग ७०**
**इस अंग में प्रेम विषयक विचार कर रहे हैं -** 
नो लक्ष नक्षत्र नौधा भक्ति, रज्जब रजनी माँहिं । 
प्रेम प्रभाकर१ उगत ही, दृष्टि सु दीसै नाँहिं ॥१॥ 
नौ लाख नक्षत्र रात्रि में तो दीखते हैं किन्तु सूर्य१ के उदय के होने पर नहीं दीखते, वैसे ही अन्त-करण में प्रेम उत्पन्न होने पर नवधा भक्ति का विधि विधान नहीं रहता । 
विविधि बंदगी वपस्१ विधि, प्रेम प्राण२ की ठौर । 
जन रज्जब तिस जीव बिन, सब गुण मृतक हि और ॥२॥ 
नवधा आदि नाना सेवा-भक्ति तो शरीर१ के समान हैं और प्रेम प्राणी२ के समान है, जैसे जीव के बिना शरीर मृतक होता है, वैसे ही प्रेम के बिना अन्य सभी सेवा आदि गुण मृतक ही है । 
नवों खंड नौधा भगति, दशवीं दशवें द्वार । 
प्रेम लक्षनैं प्रभु जी, तिलक दिया संसार ॥३॥ 
शरीर के अन्य नव भागों के समान तो नवधा भक्ति है और दसवीं प्रेम लक्षण भक्ति के दशम द्वार के समान शिरोमणी है, संसार में प्रभु ने प्रेम लक्षण भक्ति को ही श्रेष्ठ पद दिया है । 
रज्जब पावक प्रेम है, कंचन आतम राम । 
गाल मिलावै दुहिन१ को, प्रेम करे यह काम ॥४॥ 
प्रेम अग्नि के समान है, और आत्मा तथा राम सुवर्ण का समान हैं, जैसे सोना के दो खण्डों को अग्नि में गला कर मिला देता है, वैसे ही प्रेम आत्मा और राम दोनों१ को मिला देता है यह काम प्रेम ही करता है । 
(क्रमशः)

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