सोमवार, 22 अप्रैल 2019

= ४९ =



🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*शब्दों माहिं राम धन, जे कोई लेइ विचार ।*
*दादू इस संसार में, कबहुं न आवे हार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ शब्द का अंग)*
====================
साभार ~ oshoganga.blogspot.com

संस्कृत इस भारत भूमि के गहन प्राणों से आती है। इस भारत देश ने जो भी पाया है, आंख बंद करके पाया है। पश्चिम का उपाय है : आंख खोल कर देखो। पूरब का उपाय है अगर देखना है, आंख बंद करके देखो। क्योंकि पश्चिम देखता है पर को; पूरब देखता है स्व को।
.
दूसरे को देखना हो, आंख खुली चाहिए; स्वयं को देखना हो, खुली आंख बाधा है। स्वयं को देखना हो, आंख बंद चाहिए। संस्कृत तो स्वयं को देखने वालों की भाषा है।
.
फिर अंग्रेजी, मौलिक रूप से अर्थ—निर्भर है। संस्कृत मौलिक रूप से ध्वनि— निर्भर है। अंग्रेजी में कोई संगीत नहीं। संस्कृत में संगीत ही संगीत है। संस्कृत काव्य है। उसे सुनना हो तो आंख बंद करके, मौन में, संगीत की—भांति सुनना चाहिए। अर्थ—निर्भर नहीं है, ध्वनि—निर्भर है। अंग्रेजी अर्थ—निर्भर है।
.
अंग्रेजी विज्ञान की भाषा है। संस्कृत धर्म की भाषा है। अंग्रेजी में चेष्टा है प्रत्येक शब्द का साफ—साफ, स्पष्ट—स्पष्ट अर्थ हो। अंग्रेजी बड़ी गणितीय है। संस्कृत में एक—एक शब्द के अनेक अर्थ हैं। बड़ी तरलता है। बड़ा बहाव है! बड़ी सुविधा है।
.
अगर गीता अंग्रेजी में लिखी गई होती तो एक हजार टीकाएं नहीं हो सकती थीं। कैसे करते ! शब्दों के अर्थ तय हैं, सुनिश्चित हैं। गीता संस्कृत में है; एक हजार क्या, एक लाख टीकाएं हो सकती हैं। क्योंकि शब्द तरल हैं। उनके अनेक अर्थ हैं। एक— एक शब्द के दस—दस बारह—बारह अर्थ हैं। जो मर्जी हो।
.
अंग्रेजी जैसी भाषाएं सुनने वाले, पढ़ने वाले को बहुत मौका नहीं देतीं। किसी लिए कुछ छोड़ती नहीं। जो है वह साफ बाहर है। संस्कृत—पूरा नहीं कहतीं; बस शुरुआत मात्र है, फिर बाकी सब दूसरे पर छोड़ देती हैं। बड़ी स्वतंत्रता है।
.
फिर सोचें, पूरा करें। प्रारंभ है संस्कृत में, पूरा मनुष्य को करना होगा।
सूत्रपात है। इसीलिए तो इनको 'सूत्र' कहते हैं। इन संस्कृत के वचनों को 'सूत्र' कहते हैं। सिर्फ धागा। सब साफ नहीं है, जरा सा इशारा है। फिर इशारे का साथ पकड़ कर चल पड़़ना है। फिर पूरा अर्थ अपने भीतर खोजें।
.
अर्थ बाहर से तैयार हुआ उपलब्ध नहीं है।अर्थ अपने भीतर जन्माना होगा।
पश्चिम की भाषाएं गणित और विज्ञान के साथ—साथ विकसित हुई हैं। इसलिए पाश्चात्य विचारक बड़े हैरान होते हैं कि संस्कृत के एक—एक वचन के कितने ही अर्थ हो सकते हैं, यह कोई भाषा है ! 
.
भाषा का मतलब होना चाहिए : अर्थ सुनिश्चित हो। नहीं तो गणित और विज्ञान विकसित ही नहीं हो सकते। अगर गणित और विज्ञान में भी भाषा अनिश्चित हो तो बहुत कठिनाई हो जाएगी। सब साफ होना चाहिए। हर शब्द की परिभाषा होनी चाहिए। संस्कृत में कुछ भी परिभाष्य नहीं है ! अपरिभाष्य है। एक तरंग दूसरी तरंग में लीन हो जाती है। एक तरंग दूसरी तरंग को पैदा कर जाती है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें