सोमवार, 22 अप्रैल 2019

= *शूरातन का अंग ७१(५३/५७)* =

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卐 सत्यराम सा 卐 
*कायर काम न आवही, यहु शूरे का खेत ।*
*तन मन सौंपै राम को, दादू शीश सहेत ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**शूरातन का अंग ७१** 
रज्जब सती समाय सल१, जीवहिं ले भाजे । 
तो हाँसी तिहु लोक में, दोऊ कुल लाजे ॥५३॥ 
सती चिता१ पर बैठने के पीछे अग्नि से डर कर प्राण रक्षा के लिये उठ भागे तो तीनों लोकों में उसकी हंसी होती है और पीहर तथा ससुराल दोनों कुल लज्जित होते हैं, वैसे ही साधक योग संग्राम में उतर कर कामादि से हार कर भागे, तो पितृ कुल और गुरु कुल दोनों ही लज्जित होते हैं । 
सूर डिगे१ संग्राम शिर, सती चलै सल२ छाड़ । 
तो भट चारण विरुद३ तज, तबहिं उठें मन भांड४ ॥५४॥ 
युद्ध शिर पर आने के समय शूर युद्ध से भाग१ जाय और सती चिता२ को छोड़ भागे तो उसी भाट, चारण लोग उनका यश३ गाना छोड़ देते हैं और उनके मन में उक्त शूर सती की निन्दा की भावनाऐं उठती है वा चारण भाट उनके मन की निन्दा४ करते हुये उठ जाते हैं । 
कायर को ब्रह्मा इये१, बहुरि२ लडै सो नाँहिं ।
रज्जब बिचले३ देखतां४, किरका५ नांहि माहिं ॥५५॥ 
कायर को ब्रह्मा भी यहां१ आकर युद्ध का उपदेश करे फिर२ भी वह नहीं लड़ सकता उसके शरीर के मध्य३ के हृदय में देखने४ पर उसमें शोर्य का कण५ भी नहीं ज्ञात होता । 
शूर सती अर संत के, मरणै मंगल मांड१ । 
रज्जब मुर२ मुख मोड़तों, भूत३ भक्त करे भांड४ ॥५६॥ 
सूर सती और संत अपने कार्य में प्राण देते हैं तभी ब्रह्माण्ड१ में उनके मंगल - गीत गाये जाते हैं और उक्त तीनों२ अपने कार्य से मुख मोड़ते हैं तो भक्त तथा सभी प्राणी३ उनकी निंदा४ करते हैं । 
रज्जब कायर शूर ने, प्रकट गुप्त की खोड़१ । 
एकै२ कर करि हाहड़े३, दूजे मूंछ मरोड़ ॥५७॥ 
कायर और शूर को प्रकट-गुप्त करने का चिन्ह उनके शरीर१ में ही रहता है, एक२ तो अर्थात कायर तो युद्ध को देखकर भय के मारे हायरे३ करके भागता है, इससे संसार गुप्त रहता है और दूसरा शूर युद्ध को देखकर निर्भयता के साथ युद्ध में प्रवेश करने के लिये मूछों को बल देता है इससे संसार में प्रगट हो जाता है । 
(क्रमशः)

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