शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

= *शूरातन का अंग ७१(१७/२०)* =

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卐 सत्यराम सा 卐 
*दादू माहीं मन सौं झूझ कर, ऐसा शूरा वीर ।*
*इंद्रिय अरि दल भान सब, यों कलि हुआ कबीर ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**शूरातन का अंग ७१** 
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लड़ै पड़ै बहुर्यों१ चढै, शूर करे संग्राम । 
जन रज्जब जोधार२ जीव, महा अड़ीले३ ठाम४ ॥१७॥ 
शूर संग्राम में युद्ध करता है, शत्रु के आधात से रण भूमी में पड़ता है और जीवित रहता है तो फिर१ शत्रु पर चढाई करता है, वैसे ही जीवों में संत योद्धा२ अपने योग संग्राम४ में महान् हठपूर्वक अड़ा३ रहने वाला होता है, कामादि से हटता नहीं, उन्हें जीत कर ही सन्तोष लेता है । 
दिन प्रति केसौं काटिये, बैठ रहै सो नाँहिं । 
रज्जब साँचा सूरमा, यहु लक्षण जा माँहिं ॥१८॥ 
प्रतिदिन केशों को काटा जाय तो भी वे बढने से नहीं रुकते, वैसे ही प्रतिदिन विद्ध किया जाय तो भी भी युद्ध से डर कर नहीं बैठता, यह लक्षण जिसमें हो वही सच्चा शूर वीर है । 
शरीर१ सफर२ तब का किया, जब गाजी३ असवार । 
सो रज्जब कैसे फिरै, खिल४ खाने५ बेजार६ ॥१९॥ 
जब वीर३ अश्व पर सवार होता है तब दुष्ट१ तो भाग२ जाते हैं और वीर लौट आता है किन्तु वह संत शूर कामादि को मार कर भी संसार की ओर कैसे लौट सकता है ? उसे तो वैराग्य के कारण संपूर्ण४ वैभव५ दुखी६ करने वाला हो जाता है, अत: वह तो ब्रह्म में ही मिलता है संसार में नहीं आता । 
पिंड प्राण संकल्प कर, शूर चढै संग्राम । 
जन रज्जब जग को तजै, गृह दारा धन धाम ॥२०॥ 
शरीर और प्राणों की रक्षा करने का संकल्प छोड़कर तथा घर की नारी, धन और घर इत्यादिक जगत को छोड़ कर शूर संग्राम के लिये चढाई करता है, वैसे ही संत सब राग का त्याग कर योग संग्राम में उतरता है । 
(क्रमशः)

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