शुक्रवार, 5 अप्रैल 2019

= १७ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू खोजि तहाँ पीव पाइये,*
*जहँ बिन जिह्वा गुण गाइ ।*
*तहँ आदि पुरुष अलेख है, सहजैं रह्या समाइ ॥*
=========================

शरीर का स्वभाव क्षणभंगुर है। वहां तृप्ति कभी स्थिर हो नहीं सकती। अतृप्ति वहां बनी ही रहेगी। लाख करें उपाय, उपाय से कुछ न होगा। शरीर का स्वभाव नहीं है।
.
यह तो ऐसे ही है जैसे कोई आदमी आग को ठंडा करने में लगा हो; कि रेत से तेल निचोड़ने में लगा हो। कहेंगे पागल है। आग कहीं ठंडी हुई? आग का स्वभाव गर्म होना है। कि रेत से कहीं तेल निचुड़ा? रेत में तेल है ही नहीं। पागल मत बनो।
.
शरीर से जो तृप्ति की आकांक्षा कर रहा है वह नासमझ है। उसने शरीर के स्वभाव में झांक कर नहीं देखा। शरीर क्षणभंगुर है। बना ही क्षणभंगुर से है। भंगुरता शरीर का स्वभाव है। जिन—जिन चीजों से मिला है वे सभी चीजें बिखरने को तत्पर हैं; बिखरेगी। शाश्वत जब तक न हो तब तक तृप्ति कहां? सनातन न मिले तब तक सुख कहा?
.
नहीं, शरीर के छंद को जिसने अपना छंद मान लिया, जिसने ऐसा गलत तादात्म्य किया वह भटकेगा, वह रोएगा, वह तड़फेगा। और शरीर के छंद को अपना छंद मान लिया तो अपना छंद जो भीतर गूंज रहा है अहर्निश, सुनाई ही न पड़ेगा। शरीर के नगाड़ों में, बैंड—बाजों में, क्षणभंगुर की चीख—पुकार में, शोरगुल में, बाजार में, वह जो भीतर अहर्निश बज रही वीणा स्वयं की, वह सुनाई ही न पड़ेगी।
.
वह सुर बड़ा धीमा है। वह सुर शोरगुल वाला नहीं है। उसे सुनने के लिए शांति चाहिए; निश्चल चित्त चाहिए; मौन अवधारणा चाहिए; निगूढ़ वासनाशून्यता चाहिए। आना—जाना न हो, आपाधापी न हो, भाग—दौड़ न हो; बैठ गए हैं, कुछ करने को न हो, ऐसी निष्क्रिय दशा में, ऐसे शांत प्रवाह में उसका आविर्भाव होता है। फूटती है भीतर की किरण। आती है सुगंध। जब आती है तो खूब आती है। एक बार द्वार—दरवाजा खुल जाए तो रग—रग, रोआं—रोआं आनंदित हो उठता है।
.
उस भीतर के गीत के फूटने का नाम है स्वच्छंद। स्वच्छंद का अर्थ है : जो अपने गीत से जीता। न तो समाज के गीत से जीता, न राष्ट्र के गीत से जीता। राष्ट्रगीत उसका गीत नहीं। समाज का गीत उसका गीत नहीं। संप्रदाय, मंदिर, मस्जिद, पंडित— पुरोहित उसका गीत नहीं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें