शुक्रवार, 5 अप्रैल 2019

= *रस का अंग ६९(९/१३)* =

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卐 सत्यराम सा 卐 
*दादू पाया प्रेम रस, साधु संगति मांहि ।*
*फिरि फिरि देखे लोक सब, यहु रस कतहूँ नांहि ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**रस का अंग ६९** 
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रज्जब अज्जब राम रस, पाया गुरु परसाद । 
पोष्या१ प्राण पियूष२ सौं, छूटे वाद विवाद ॥९॥
गुरु के कृपा प्रसाद से हमने अदभुत राम-रस प्राप्त किया है, उस अमृत२-रस से हमारे जीवात्मा को संतोष१ हो गया है और वाद-विवाद छूट गये हैं । 
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रज्जब दुनिया हद्द१ में, साधू जन बे हद्द । 
जाति पांति देखै नहीं, पीया हरि रस मद्द२ ॥१०॥
सांसारिक प्राणी वर्ण, आश्रम आदि को सीमा१ में बंधे हुये हैं, संत उक्त सीमा से बाहर हैं, वे तो जैसे मद्य२ पान से मस्त जाति पाति को नहीं देखते, वैसे ही सदा हरि-रस में मस्त हुये रहते हैं, अत: जाति पांति भेद दृष्टि रहित सम रहते हैं । 
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गुण औषधि मिश्री सु मन, सेवा सलिल मिलाय । 
रज्जब प्याले प्रीतिकर, आतम राम पिलाय ॥११॥
सदगुरु रूप औषधि, अशुद्ध और.स्थिर मन रूप मिश्री, भक्ति रूप जल मिलाकर प्रीति रूप प्याले से आतमाराम को पिलाओ, ऐसा करने से आत्मस्वरूप राम प्राप्त होंगे । 
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मति मिश्री जीव३ जल घुली, प्राण पियूष१ समान । 
अमृत पीवहिं आतमा, कोई ल्यौं तहँ आन२ ॥१२॥
ब्रह्म ज्ञान रूप मिश्री संतों के अन्त:करण३ रूप जल में घुली हुई है, अर्थात संतों में ब्रह्मज्ञान रहता है और वह प्राणियों के लिये अमृत१ के समान है, जिज्ञासु आत्मा सत्संग द्वारा पान करते हैं, वहाँ सत्संग में आकर२ कोई भी उसे ग्रहण कर सकता है । 
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काया कुंडा भरि लिया, भाव१ हि भंग समान । 
कुतक२ कुंदन३ ज्ञान का, रज्जब रुचि रस पान ॥१३॥
कुँडे में भंग डालकर शुद्ध३ मोटा डंडा२ लेकर घोटते हैं, फिर रुचि अनुसार पान कर मस्त हो जाते हैं, वैसे ही शरीर के भीतर अन्त:करण में प्रभु-प्रेम१ उत्पन्न करके पीछे संशय विपर्यय रहित शुद्ध ज्ञान द्वारा निदिध्यासन करके ब्रह्म साक्षात्कार से मस्त हो जाओ । 
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित रस का अंग ६९ समाप्त ॥सा. २१७८॥
(क्रमशः)

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