शनिवार, 6 अप्रैल 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*याँ रस काज भये नृप जोगी, छाडै भोग-विलासा ।* 
*सेज सिंहासन बैठे रहते, भसम लगाय उदासा ॥* 
*गोरखनाथ भरथरी रसिया, सोहि कबीर अभ्यासा ।* 
*गुरु-दादू परसाद कछु इक, पायौ *"सुन्दरदासा"* ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

क्षिप्त: संसारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत्।
बस, फिर सब अपने से हो जाएगा। फिर कुछ और करने को नहीं है। सूखे पत्ते क्या हुए, जीवन में अमृत की वर्षा हो जाएगी। जहां अपनी कोई आकांक्षा नहीं रहती वहां कोई दुःख नहीं रह जाता। वहाँ कोई पराजय नहीं, विषाद नही। वहां कोई मान नहीं, सम्मान नहीं, अपमान नहीं। वहाँ कोई हार नहीं, जीत नहीं। क्षण— क्षण वहां परमात्मा बरसता है। उस परमात्मा का नाम ही स्वयं का छंद है। वह स्वयं का ही गीत है, जो भूल बैठे हैं। गुनगुनाएंगे, फिर याद आ जाएगा।
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असंसारस्य तु क्यापि न हषों न विषादता।
और जो सूखे पते की भांति हो गया, ऐसे जिसके भीतर संसार न रहा— असंसारस्य।
स शीतलमना नित्यं विदेह इव सजते।
'संसारमुक्त पुरुष को न तो कभी हर्ष है और न विषाद। वह शीतलमना सदा विदेह की भांति शोभता है।’
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अनुवाद में कुछ खो जाता लगता है।
असंसारस्य— अनुवाद में कहा है संसार— मुक्त पुरुष को। असंसारस्य का अर्थ होता है, जिसके भीतर संसार न रहा; या जिसके लिए संसार न रहा।
संसार का अर्थ ही क्या है? ये वृक्ष, ये चांद—तारे, ये थोड़े ही संसार हैं ! संसार का अर्थ है, भीतर बसी वासनाएं, कामनाएं, इच्छाएं—उनका जाल। कुछ पाने की इच्छा संसार है। कुछ होने की इच्छा संसार है। महत्वाकांक्षा संसार है।
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असंसारस्य—जिसके भीतर संसार न रहा, जिसमें संसार न रहा; या जो संसार में रह कर भी अब संसार का नहीं है। ऐसे व्यक्ति को कहा हर्ष, कहां विषाद !
स शीतलमना नित्यं विदेह इव राजते।
ऐसे पुरुष का मन हो गया शीतल—शीतलमना।
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इसे भी समझें। जब तक जीवन में हर्ष और विषाद है तब तक शीतल न हो सकेंगे। क्योंकि हर्ष और विषाद, सुख और दुख, सफलता—असफलता ज्वर लाते हैं, उत्तेजना लाते हैं, उद्वेग लाते हैं। जब दुखी होते हैं तब तो बीमार होते ही हैं, जब सुखी होते हैं तब भी बीमार होते हैं।
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सुख भी बीमारी है, क्योंकि उत्तेजक है। सुख में शांति कहां?एक बात तो जान ली है कि दुख में शांति कहा? दूसरी बात जाननी है कि सुख में भी शांति कहां? सुख में भी उत्तेजना हो जाती है। चित्त में खलल हो जाती है। देखा न? आदमी दुख में तो बच जाता है, कभी—कभी सुख में मर जाता है।
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सुख भी गहरी उत्तेजना लाता है। सुख का भी ज्वर है। दुख का तो ज्वर है ही; और दुख को तो झेल भी लेते हैं, क्योंकि दुख के आदी हो गए हैं। और सुख को तो झेल भी नहीं पाते, क्योंकि सुख का कोई अभ्यास ही नहीं है। मिलता ही कहां सुख कि अभ्यास हो जाए?
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तो न तो आदमी दुख को झेल पाता, न सुख को झेल पाता है। और दोनों ही स्थिति में आदमी का चित्त उत्तेजना से भर जाता है। उत्तेजना यानी गर्मी। शीतलता खो जाती है। और शीतलता में शांति है।
असंसारस्य तु क्यापि न हषों न विषादता।
स शीतलमना नित्यं विदेह इव सजते।।
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और जो शीतलमन हो गया, अब जहां सुख—दुख नहीं आते, अब जहां सुख और दुख के पक्षी बसेरा नहीं करते, ऐसा जो अपनी स्वच्छंदता में शीतल हो गया है, जिसके भीतर बाहर से अब कोई उत्तेजना नहीं आती, हार और जीत की कोई खबरें अब अर्थ नहीं रखतीं; सम्मान कोई करे और अपमान कोई करे, भीतर कुछ अंतर नहीं पड़ता। भीतर एकरसता बनी रहती है। ऐसा जो शीतलमन हो गया है, वह व्यक्ति शांतमना सदा विदेह की भांति शोभता है। वह तो राजसिंहासन पर बैठ गया।

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