मंगलवार, 9 अप्रैल 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*सुख का सागर वार न पारा,* 
*अमी महारस पीवनहारा ॥*
*प्रेम मगन मतवाला माता,* 
*रंग तुम्हारे दादू राता ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ११०)*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

जिस घड़ी में भी अपने से जुड़ जाते हैं, सुख बरस जाता है। जिस घड़ी तुम अपने से टूट जाते हैं, दुख बरस जाता है।
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इस सत्य को धीरे—धीरे पहचानने लगता है जब कोई, तो धीरे— धीरे निमित्त को त्यागने लगता है। फिर बैठ जाता है अकेला। इसी का नाम ध्यान है। फिर वह यह फिकर नहीं करता कि मित्र आए तब सुखी होंगे। ऐसे रोज मित्र आते नहीं। और रोज आने लगें तो सुख भी न आएगा; वे कभी—कभी आते हैं तो ही आता है। ऐसे घर में ही ठहर जाएं तो फिर बिलकुल न आएगा।
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फिर ऐसा व्यक्ति इसकी चिंता नहीं करता कि चांद जब निकलेगा तब सुखी होंगे; कि जब बसंत आएगा और फूल खिलेंगे तब सुखी होंगे। ऐसी भी क्या कंजूसी? जब सुख भीतर ही है तो धीरे— धीरे बिना निमित्त के व्यक्ति अपने को अपने से जोड़ने लगता है। इसी का नाम ध्यान।
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ऐसे बैठ जाता है शांत, अपने से जोड़ लेता है—बिना निमित्त के। निमित्तशून्यता में अपने से जोड़ लेता।
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और जब कभी एक बार भी बिना निमित्त के अपने से जुड़ जाते हैं, तो घटना घट गई। कुंजी मिल गई। अब जानते हैं, अब किसी पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है। जब चाहो तब ताला खुलेगा। जब चाहो तब भीतर का द्वार उपलब्ध है। बीच बाजार में आंख बंद करके खड़े हो सकते हैं और डूब जा सकते हैं अपने में।
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फिर धीरे— धीरे आंख बंद करने की भी जरूरत नहीं रह जाती, क्योंकि वह भी निमित्त ही है। फिर आंख खुली रखे अपने में डूब जाते हैं। फिर काम करते— करते भी डूब जाते हैं। फिर ऐसा भी नहीं है कि पद्मासन में ही बैठना पड़े, कि पूजागृह में बैठना पड़े, कि मंदिर में बैठना पड़े। फिर बाजार में, खेत में, खलिहान में काम करते—करते भी अपने में डूब जाते हैं।

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