#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*शूरा चढ़ संग्राम को, पाछा पग क्यों देहि ?*
*साहिब लाजै भाजतां, धृग जीवन दादू तेहि ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**शूरातन का अंग ७१**
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सती सरोतरि१ राम कहि, मरणा उरै२ मर जाय ।
जन रज्जब जग देखतों ज्वाला माँहिं समाय ॥२१॥
सती पति के कान१ राम-राम कहकर सती होने का संकल्प करके मरने से पहले२ ही मर जाती है और जगत के लोगों के देखते देखते ही चिता की ज्वालाओं में समा जाती है, वैसे ही संत अज्ञान नाश द्वारा मरने से पहले ही मर जाते हैं और ब्रह्म में समा जाते हैं ।
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साहिब सन्मुख पाँव दे, पीछा पलक न देख ।
रज्जब मुड़तो मारिये, भीयहु१ लाजै भैख ॥२२॥
हे साधक ! प्रभु के सन्मुख ही अपना वृत्ति रूप पैर बढा, पीछे संसार की ओर एक क्षण भी मत देख, संसार की ओर मुड़ने से कामादि द्वारा मारा जायेगा और कामादि से डरने१ से भेष को भी लाज लगेगी ।
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घर आँगण बाजार में, बांका सबको देख ।
रज्जब रण में बांकड़ा, सो जन विरला कोय ॥२३॥
घर में चौक में और बाजार में तो सभी वीर बनते हैं किन्तु रण स्थल में वीर बने वह जन कोई बिरला ही होता है ।
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रज्जब अतिगति१ सूधा देखिये, शूर शहर के माँहिं ।
काम पड्यों ह्वै केशरी२, रण में मावे नाँहिं ॥२४॥
शूर वीर शहर में तो अत्याधिक१ सीधा देखा जाता है और युद्ध का काम पड़ने पर सिंह२ हो जाता है, वीरता के कारण रण स्थल में अपनी सीमा में नहीं समाता निकलकर शत्रु दल में आ घुसता है और मार भगाता है, वैसे ही संत घंटा - दो घंटा की सीमा का भजन नहीं करता, निरंतर भजन द्वारा कामादि पर विजय प्राप्त करता है ।
(क्रमशः)
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