शनिवार, 13 अप्रैल 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू खीला गार का, निश्चल थिर न रहाइ ।*
*दादू _पग नहीं साँच_ के, भ्रमै दहदिशि जाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ मनका अंग)*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

निश्चित ही वासना दुष्पूर है; ऐसा भगवान बुद्ध का वचन है। ऐसा समस्त बुद्धों का वचन है। वासना दुष्‍पूर है, इसका अर्थ होता, वासना को भरा नहीं जा सकता, लाख उपाय कर लें।
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दस रुपये हैं तो बीस रुपये चाहिए। दस हजार हैं तो बीस हजार चाहिए। और दस लाख हैं तो बीस लाख चाहिए। जो अंतर है दस और बीस का; कायम रहता है। वासना दूष्‍पूर है, इसका अर्थ हुआ कि अतृप्ति का जो अनुपात है, सदा कायम रहता है। उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। कितना कमा लेंगे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वासना उतनी ही आगे बढ़ जाएगी।
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वासना क्षितिज की भांति है। दिखाई पड़ता है यह दस मील, बारह मील दूर मिलता हुआ पृथ्वी से। भागें, लगता है घड़ी में, दो घड़ी में पहुंच जाएंगे। भागते रहें जन्मों—जन्मों तक, कभी न पहुंचेंगे। जितना भागे उतना ही क्षितिज आगे हट गया। स्वयं के और क्षितिज के बीच का फासला सदा वही का वही।
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वासना दुष्‍पूर है इसका अर्थ, कि वासना को भरने का कोई उपाय नहीं। यह सत्य है। अब विरोधाभास लगता है क्योंकि दूसरी बात शास्त्र कहते हैं कि जब तक रस बाकी रह गया हो तब तक कठिनाई है। रस को पूरा ही कर लेना। वासना दुष्पूर है; यह नहीं कहा जा रहा है कि रस समाप्त नहीं होगा। रस विरस हो जाएगा। वासना तो दुष्‍पूर है। रस सूख जाएगा।
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*सच तो यह है, वासना दुष्पूर है ऐसा जान कर ही रस विरस हो जाएगा।* विरोधाभास नहीं है। जिस दिन जानेंगे कि वासना भर ही नहीं सकती। दौड़—दौड़ थकेंगे, दौड़—दौड़ गिरेंगे। सब उपाय कर लेंगे, वासना भरती नहीं। कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता। असंभव है। हो ही नहीं सकता।
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तब धीरे— धीरे पाएंगे कि जो हो ही नहीं सकता, जो कभी हुआ ही नहीं है, उसमें रस विक्षिप्तता है।
जैसे कोई आदमी दो और दो को तीन करना चाहता हो और कहता हो, मुझे बड़ा रस है, मैं दो और दो को तीन करना चाहता हूं। तो कहेंगे, करो। दो और दो तीन होंगे नहीं,करो। दो और दो तीन होंगे नहीं करने से, एक दिन जागोगे और रस ही मूढ़तापूर्ण सिद्ध हो जाएगा। और स्वयं ही कहेंगे कि यह होनेवाला नहीं, क्योंकि यह हो ही नहीं सकता। रस लेना ही मूढ़ता है। रस ही खंडित हो जाएगा।
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जब रस खंडित होगा, तब भी यह मत सोचना कि दो और दो तीन हो जाएंगे। तब भी दो और दो तीन नहीं होते लेकिन अब रस न रहा। रस का अर्थ ही है कि आशा है कि शायद कोई विधि होगी, कोई तरकीब होगी, कोई जादू होगा, कोई चमत्कार होगा जिससे दो और दो तीन हो सकेंगे। दूसरों को पता न होगा।
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सिकंदर हार गया माना, नेपोलियन हार गया माना, लेकिन मैं भी हारूंगा यह क्या पक्का है? शायद कोई तरकीब रह गई हो, जो उन्होंने काम में न लाई हो।
सच है कि बुद्ध हार गए और महावीर हार गए, लेकिन यह कहां पक्का पता है कि उन्होंने सभी उपाय कर लिए थे और सभी विधियां खोज ली थीं? अगर एक हजार विधियां खोजी हों और एक भी बाकी रह गई हो, कौन जाने उस एक से ही द्वार खुलता हो ! उस एक में ही कुंजी छिपी हो

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