रविवार, 14 अप्रैल 2019

= *शूरातन का अंग ७१(२५/२८)* =

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卐 सत्यराम सा 卐 
*राम नाम नहीं छाडूं भाई,* 
*प्राण तजूं निकट जीव जाई ॥टेक॥*
*रती रती कर डारै मोहि,* 
*साँई संग न छाडूं तोहि ॥१॥*
*भावै ले सिर करवत दे,* 
*जीवन मूरी न छाडूं तोहि ॥२॥*
*पावक में ले डारै मोहि,* 
*जरै शरीर न छाडूं तोहि ॥३॥*
*अब दादू ऐसी बन आई,* 
*मिलूं गोपाल निसान बजाई ॥४॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**शूरातन का अंग ७१** 
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सिन्धू स्वर श्रवणों सुनत, शूर सनाह१ न माय२ । 
रज्जब भागे जतन सब, ह्वै गया और हि भाय३ ॥२५॥ 
सिन्धु राग के स्वरों को श्रवणों से सुनते ही वीर अपने कवच१ में नहीं समाता२, उसे रण से रोकने के सभी यत्न बेकार हो जाते हैं, उस समय उसका भाव३ और ही प्रकार का हो जाता है । 
रामरी१ आँण२छे राम मेल्हूं३ नहीं, 
बले४ बीजो५ कासौं कहीजे । 
रज्जब रामनौं६ छाडिनै७ वेगला८, 
कहौं नै बले९ कै१० काल जीजे ॥२६॥ 
मैं राम१ की शपथ२ करके कहता हूँ, राम का भजन नहीं त्यागूंगा३, राम का यश कथन करना त्याग के फिर४ अन्य५ किसका यश कहना है ? राम को६ छोड़ के७ राम से अलग८ रहकर फिर९ कहो ने कितना१० समय जीना है ? 
सेवक१ शूरा सिंह मन, विरच्यों२ करै विहंड३ । 
जन रज्जब डरपै नहीं, पड़तों अपणा पिंड ॥२७॥ 
शूर व सिंह का मन बिगड़ने२ पर वे नाश३ करते हैं फिर तो अपना शरीर गिरने की स्थिति में भी नहीं डरते, वैसे ही संत१ का मन विरक्त२ होने पर वह भी भोग राग को नाश कर देते हैं तथा साधन में शरीर के गिरने की स्थिति आ जाय तो भी नहीं डरते । 
मरबे मांझी१ ऊतर्या, पूरा पाइक२ होय । 
रज्जब रावत३ क्यों टलै, आडा आवो कोय ॥२८॥ 
जो पुरा भक्त२ बनकर मरने के मध्य१ उतर गया है अर्थात जिसे मरने की परवाह नहीं है, वह संत शूर३ कामादि योद्धाओं के सामने से कैसे हट सकता है ? उसके सामने काम क्रोध लोभ मोहादि में से कोई भी आये वो सभी से युद्ध करता है । 
(क्रमशः)

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