रविवार, 14 अप्रैल 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*भोर भयो पछतावन लागे, मांहीं महल कुछ नांहीं ।*
*जब जाइ काल काया कर लागे, तब सोधे घर मांहीं ॥*
*जाग जतन कर राखो सोई, तब तन तत्त न जाई ।*
*चेतन पहरे चेतत नांहीं, कहि दादू समझाईं ॥* 
(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. २१९)
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

वही खो सकते हैं, जो पास हो। उसे तो कैसे खोएंगे जो पास नहीं है? इसे समझें।
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अक्सर ऐसा हो जाता है। कहावत है कि नंगा नहाता नहीं क्योंकि वह कहता है, नहाऊंगा तो नीचोडूंगा कहां? निचोड़ने को कुछ है ही नहीं। भिखमंगा रात भर जागता रहता है कि कहीं चोरी न हो जाए। चोरी हो जाए ऐसा कुछ है ही नहीं।
पूछते हैं....
'किसी व्यक्ति—विशेष के प्रति समर्पण करना क्या निजी अस्तित्व और स्वतंत्रता को खो देना नहीं है?'
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अगर है स्वतंत्रता तो, तो कोई जरूरत ही नहीं है किसी के प्रति समर्पण करने की। प्रयोजन क्या है? स्वतंत्रता को उपलब्ध हो गए हैं, निजी अस्तित्व उपलब्ध हो गया है, उसी का नाम तो आत्मा है। अब समर्पण की जरूरत क्या है?
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लेकिन अक्सर ऐसा होता है, न तो स्वतंत्रता है, न कोई निजी अस्तित्व है और घबड़ा रहे हैं कि कहीं समर्पण करने से खो न जाए। नंगा नहाए तो डर रहा है कि निचोडूगा कहां? कपड़े सुखाऊंगा कहां?
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पहले तो यही सोच लें ठीक से कि पास में स्वतंत्रता है? अपने पास अपना अस्तित्व है। आत्मा का अनुभव किया है? — उस स्वच्छंदता को जाना है, जिसका उल्लेख सांख्य कर रहा है? अगर जान लिया तो अब समर्पण करने की जरूरत क्या है? किसको समर्पण करना है? किसके लिए करना है? समर्पण मनुष्य इसी स्वतंत्रता की खोज में करता है।
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और अगर स्वयं के पास यह स्वतंत्रता नहीं है तो समर्पण सहयोगी है। फिर समर्पण में वही खोएंगे जो पास है— अहंकार है पास; आत्मा पास अभी है नहीं। और समर्पण में आत्मा नहीं खोती, अहंकार ही खोता है।
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और अहंकार ही तरकीबें निकालता है बचने की। वह कहता अरे, यह क्या करते हो, समर्पण कर रहे? इसमें तो निजता खो जाएगी। यह निजता नाम है अहंकार का। इसे साफ समझ लें।
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अगर अपने को जान लिया, अब कोई जरूरत ही नहीं है। यह प्रश्न ही न पूछते। अगर अपनी स्वतंत्रता मिल गई है, अपनी स्वतंत्रता के मालिक हो गए हैं, यह संपदा पा ली, तो यह प्रश्न किस लिए करते? समर्पण करना ही किसलिए? कोई प्रयोजन नहीं रहा।
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पूछते हैं। साफ है,स्वतंत्रता की कोई सुगंध नहीं मिली है अब तक, सिर्फ शब्द सीख लिया है। शब्द सीखने में क्या धरा है? आत्मा का कुछ भी पता नहीं है। डर है कि कहीं समर्पण किया तो खो न जाए। क्या खो जाएगा? सिर्फ अहंकार का धुआं है। खो जाने दें। इसके खोने से लाभ होगा। यह खो जाए तो भीतर, इस धुएं के भीतर छिपी जो दौलत पड़ी है उसके दर्शन होने लगेंगे। समर्पण स्वतंत्रता देगा अहंकार से।

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