मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

= *शब्द परीक्षा का अंग ७३(१७/२०)* =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू साधु शब्द सौं मिलि रहै, मन राखै बिलमाइ ।*
*साधु शब्द बिन क्यों रहै, तब ही बीखर जाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*शब्द परीक्षा का अंग ७३* 
रज्जब साह दिवालिये, आघ१ कहै मुख एक । 
उनके वस्तु सु पाइये, उनके बात अनेक ॥१७॥ 
साहुकार और दिवालिये दोनों मनुष्यों का सत्कार१ मुख से ही किया जाता है किन्तु साहुकार के तो अनेक वस्तु मिलती हैं और दिवालियों के केवल अनेक बातें मिलती हैं, वैसे ही मुख से ज्ञानियों और अज्ञानियों के दोनों ही शब्द बोले जाते हैं, ज्ञानियों के शब्द में तो भक्ति ज्ञानादि वस्तु मिलती हैं और अज्ञानियों के शब्दों में केवल लौकिक चातुर्य ही होता है । 
वचन बराबर के कहैं, तो भी धीजन कोय । 
रज्जब रथहु सु भार भिन्न, खोज एकसा होय ॥१८॥ 
भार से भरा हुआ रथ और भार से भिन्न खाली रथ दोनों की लीक एक - सी ही होती है, वैसे ही संत और वेष धारी असंत दोनों समान ही वचन कहते हैं तो भी असंत पर विश्वास कोई न करे, विश्वास करने आगे शांती के बदले अशांति ही मिलती है । 
बादल बाइक१ जल अरथ, वर्षा शून्य२ मन माँहिं । 
रज्जब गर्द३ गुमान रज, उभय ठौर धुप जाँहिं ॥१९॥ 
बादल में जल और वचन१ अर्थ रहता है, बादल से वर्षता है तब आकाश२ की धूलि३ धुलकर आकाश निर्मल हो जाता है, वैसे ही गुरु के मुख से शब्द सुनता है तब प्राणी के मन की अभिमान रूप रज धुल जाती है ऐसे ही दोनों की रज धुलती है । 
रज्जब शब्द समीर१ सम, बोध वारिनिधि२ जान । 
तहां बैन वायू चलै, उठै न गर्द गुमान ॥२०॥ 
शब्द वायु१ के समान है और ज्ञान समुद्र२ के समान है, समुद्र में वायु से गर्द नहीं उठती, वैसे ही वचनों द्वारा विवाद चलने पर ज्ञानी के ज्ञान में अभिमान नहीं उठता । 
(क्रमशः)

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