गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*खेलै शीश उतार कर, अधर एक सौं आइ ।*
*दादू पावै प्रेम रस, सुख में रहै समाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ शूरातन का अंग)*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

गुरजिएफ ने लिखा है कि वह अपने युवावस्था के दिनों में मध्य एशिया के बहुत से देशों में यात्रा करता रहा सत्य की खोज में। कुर्दिस्तान में उसने एक अनूठी बात देखी। 
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पहाड़ी इलाका है। स्त्रियों को, पुरुषों को बड़ी मेहनत करनी पड़ती है, तब कहीं दो जून रोटी जुटा पाते हैं। तो बच्चों को घर छोड़ जाते हैं। जंगल—पहाड़ में लकड़ी काटने जाते हैं, काम करने जाते हैं। तो उन्होंने एक तरकीब निकाल रखी है। 
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वे बच्चों के चारों तरफ चॉक की मिट्टी से एक लकीर खींच देते हैं, गोल घेरा बना देते हैं। और बच्चे को कह देते हैं, बाहर तू निकल न सकेगा, चाहे कुछ भी कर। बचपन से यह बात कही जाती है। धीरे— धीरे बच्चा इसका अभ्यस्त हो जाता है। 
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बस लकीर खींच दो कि वह उसके भीतर बैठा रहता है। जब गुरजिएफ ने यह देखा तो वह बड़ा हैरान हुआ कि दुनिया में यह कहीं नहीं होता, लेकिन कुर्दिस्तान में होता है। और मां—बाप बड़े निश्चित जंगल चले जाते हैं अपना काम करने दिन भर। बच्चा रोए, गाए कुछ भी करे, लेकिन लकीर के बाहर नहीं निकलता।
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और बच्चे की तो बात छोड़ दें, क्योंकि इसी का अभ्यास बचपन से किया जाता है; अगर किसी बड़े आदमी के आस—पास भी लकीर खींच दें और कह दें, बाहर न जा सकेंगे, तो वह भी एकदम खड़ा रह जाता है। वह चेष्टा भी करता है तो ऐसा लगता है, कोई अदृष्‍य दिवाल उसे धक्‍के दे रही है।
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कहीं कोई दीवाल नहीं है, धारणा की दीवाल है। वह निकलने नहीं देती। कभी— कभी कोई चेष्‍टा भी करता है तो धक्‍का खाकर गिर पड़ता है। और धक्‍का खाने को कुछ नहीं है। अपना ही भाव—कि निकलना हो ही नहीं सकता। 
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चकित होवेंगे जान कर, लेकिन सम्मोहन के ये सामान्य नियम हैं। और इसी तरह सभी का जीवन भी न मालूम कितनी लकीरों से ग्रसित है। वे लकीरें खींची हैं—मां—बाप ने, समाज ने, व्यवस्था ने। मगर वे लकीरें सब झूठी हैं। पर एक बार खींच दी तो बस, खिंच गई।
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किसी ने लकीर खींच दी कि मुसलमान हो, मुसलमान हो गए। किसी ने लकीर खींच दी कि जैन हो तो जैन हो गए। ये सब लकीरें हैं। और इन सबके कारण क्षुद्र आशय हो गए हैं। महाशय रूप खो गया। लोग जो कह देते हैं वही हो गए हैं।
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मनोवैज्ञानिक कहते हैं,अगर किसी बच्चे को घर में भी कहा जाए कि तू गधा है; स्कूल में भी कहा जाए कि तू गधा है, वह गधा हो जाता है। जब इतने लोग कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। धारणा मजबूत हो जाती है। धारणा एक बार गहरी बैठ जाए तो उखाड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है।
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जरा जांचें; कितनी—कितनी धारणाओं से भरे हैं। और इन धारणाओं को ही सम्हाल रखा है। अब कोई पकड़े भी नहीं है। मां—बाप भी पास नहीं होंगे। समाज भी अब कोई रोज आस—पास लकीरें नहीं खींच रहा है। खींच चुका; बात आई—गई हो गई। लेकिन अब जीए चले जा रहे हैं। अब अपनी ही लकीरों में बंद हैं। और तब जीवन में वह महाक्रांति नहीं घट पाती तो आश्चर्य नहीं।
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स्वयं पर निर्भर है। फूल बने—बने ही गिर जाएंगे, सूख जाएंगे या असीम बनेंगे—महाशय ! गंध की तरह मुक्त ! कि घूम आवें सारे संसार में।
गंध बन जाएं तो संन्यासी हो गए। फूल रह गए तो गृहस्थ। फूल यानी सीमा है, घर है। फूल यानी परिभाषा है, बंधन है, दीवाल है। संन्यास यानी गंध जैसे मुक्त। सब दिशाएं खुल गईं। सारी हवाएं अपनी हुईं। सारा आकाश अपना हुआ !
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'जिसके अंतःकरण में अहंकार है, वह जब कर्म नहीं करता है तो भी करता है। और अहंकाररहित धीरपुरुष जब कर्म करता है तो भी नहीं करता है।’
यस्यांतः स्यादहंकारो न करोति करोति सः।
निरहंकारधीरेण न किचिद्धि कृतं कृतम्।।
अहंकार है तो कुछ न करो तो भी कर्म हो रहा है। क्योंकि अहंकार का अर्थ ही यह भाव है कि मैं कर्ता हूं। और अगर अहंकार गिर गया तो लाख कर्म करें तो भी कुछ नहीं हो रहा है। क्योंकि अहंकार के गिरने का अर्थ है कि परमात्मा कर्ता है, मैं नहीं।

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