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卐 सत्यराम सा 卐
*पहली किया आप तैं, उत्पत्ति ओंकार ।*
*ओंकार तैं ऊपजै, पंच तत्त्व आकार ॥*
*पंच तत्त्व तैं घट भया, बहु विधि सब विस्तार ।*
*दादू घट तैं ऊपजै, मैं तैं वर्ण विकार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*शब्द परीक्षा का अंग ७३*
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ग्वाड़ी१ गम२ सींगी शबद, शंख शब्द अति शोर ।
अधिक अति करनाल३ का, त्यों कवि काव्यों फोर४ ॥१३॥
सींगी के शब्द की गति२ घर के चौक१ तक ही होती है, शंख की आवाज का हल्ला अधिक होता है और तोप३ की ध्वनि अत्याधिक होती है, वैसे ही कवियों की काव्य के शब्दों४ की गति भी न्यून अधिक होती है ।
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आतम आभा१ जल शब्द, निकसै निर्मल नीर ।
पृथ्वी पड़्या पिछाणिये, रज्जब रज२ सौं सीर३ ॥१४॥
आत्मा बादल१ के समान है, शब्द जल के समान है, जैसे बादल से निर्मल जल निकलता है और पृथ्वी पर पड़ने से उसमें रज का मेल३ हो जाता है, वैसे ही संतात्माओं से निर्मल शब्द निकलते हैं किन्तु सांसारिक प्राणियों में आने पर पहचान करो तो उनमें रजोगुण२ का मेल ज्ञात होगा ।
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पंच तत्त्व परस्या१ शबद, पृथ्वी पड़्या सु नीर ।
रज्जब जब ही जाणिये, सघण२ स्वादों४ सीर३ ॥१५॥
पृथ्वी पर जल पड़ता है तब उसमें बहुत२ स्वादों का मेल३ हो जाता है, वैसे ही जब शब्द पंच तत्त्वों से मिलता१ है तब उसमें भी निश्चयपूर्वक जानो बहुत आनन्दों४ का मेल हो जाता है ।
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बहते१ रहते२ शब्द का, रज्जब इहै३ विचार ।
बहता४ बोलै गुण हुं में, रहता५ निर्गुण सार ॥१६॥
सांसारिक१ प्राणियों के और ज्ञानियों२ के शब्दों की पहचान का यही३ विचार है कि सांसारिक४ प्राणी तो तीन गुणों में स्थित देवताओं के विषय में बोलते हैं और ज्ञानी५ संसार के सार निर्गुण ब्रह्म - विषयक ही बोलते हैं ।
(क्रमशः)
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