सोमवार, 29 अप्रैल 2019

= ६१ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*शरण तुम्हारी अंतर वास,*
*चरण कमल तहँ देहु निवास ॥*
*अब दादू मन अनत न जाइ,*
*अंतर वेधि रह्यो ल्यौ लाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. १९)*
================

🚩 विभीषण जब भगवान राम की शरण में आए, तो सुग्रीव ने कहा -- महाराज, यह रावण का भाई है। 
.
रावण मूर्तिमान मोह है, इस कारण विभीषण को मोहग्रस्त जीव कहा जा सकता है और सुग्रीव मानो यही कहना चाहते हैं कि मोहग्रस्त जीव क्या ईश्वर को पाने का अधिकारी है ? उसे तो बन्दी बनाकर रख लेना चाहिए। 
.
भगवान राम ने हँसते हुए हनुमानजी की ओर देखा और कहा मुझे तो लगता है कि विभीषण बड़े सज्जन हैं और सुग्रीव कह रहे हैं कि वह रावण का भाई है, इसलिए दुर्जन है। ये दो आँखें मानो दो अलग-अलग दृष्टियाँ हैं -- एक दृष्टि से देखें तो रावण के भाई होने के नाते निन्दनीय है और दूसरी दृष्टि से देखें तो जब मोह को छोड़कर भगवान के शरण में आए हुए हैं, तो इन्हें सज्जन और शुद्धात्मा मानना चाहिए। 
.
भगवान राम ने हँसते हुए जो हनुमानजी की ओर देखा, इसके पीछे मानो व्यंग्य यह था -- भाई, यदि हम किसी को भोजन के लिए निमन्त्रण देकर घर में किसी को ना बतायें और वह आमन्त्रित व्यक्ति आ पहुँचे, तब क्या होगा ? घर के लोग यदि पूछने लगे कि ये कौन है, क्यों आए हैं, आदि आदि, तो यह तो बेचारे आमंत्रित व्यक्ति की बड़ी दुर्दशा है। चलो, यहाँ तक भी ठीक है। परन्तु अब तो बता देना चाहिए कि इनको मैंने ही बुलाया है, लेकिन आप तो आप भी चुप बैठे हैं। 
.
प्रभु का व्यंग्य मानो यही था कि -- हनुमान, तुम्ही ने तो विभीषण को निमन्त्रण देकर बुलाया है, तुम्हें कहना चाहिए कि मैंने बुलाया है। अब हनुमानजी की स्थिति बड़ी अनोखी है। क्या ? हनुमानजी पर सुग्रीव भी अपना अधिकार मानते हैं और भगवान राम भी। दोनों का विश्वास उन पर है। किन्तु दोनों का विश्वास, दोनों की वृत्ति, दोनों का निदान अलग-अलग प्रकार का है। एक कहते हैं, विभीषण दशानन का भाई है, राक्षस है, शत्रु है और भगवान श्री राम कहते हैं --
*हिय बिहसि कहत हनुमान सों।*
*सुमति साधु सिचि सुह्द विभीषण,*
*बूझि परत अनुमान सों॥* गीतावली ५/३३
.
इधर सुग्रीव हनुमान जी की ओर देख रहे हैं। उनका संकेत है कि आप मेरा समर्थन कीजिए और प्रभु ने मानो कह दिया -- विभीषण तुम्हारे बुलाने से आए हैं, अब तुम्हारे निर्णय तुम्हारे हाथ में है। हनुमान तो सन्त हैं, बड़े चतुर निकले। वे एक ऐसी बात कह गए कि सुग्रीव तो प्रसन्न हुए ही कि इन्होंने मेरा समर्थन किया और प्रभु भी गदगद हो गए। 
.
हनुमानजी ने कहा -- प्रभु, आप मुझसे जो यह पूछ रहे हैं कि विभीषण कैसा है, तो मुझे तो यह प्रश्न भी अटपटा लग रहा है। प्रभु बोले -- अटपटा क्यों है ? तो उन्होंने उलटकर प्रभु से ही पूछा -- पहले आप यह बताइए कि *शरणागति न्यायालय है या चिकित्सालय ?* अगर न्यायालय है, तो आप निर्णय कीजिए कि विभीषण अच्छे हैं या बुरे हैं और अगर चिकित्सालय है, तो चिकित्सालय में तो रोगी आते ही है। अब अगर रोगी आया है तो यह तो वैद्य का कर्तव्य है कि वह रोगी के रोग को दूर करे। विभीषण अगर रोगी हैं, तो वे आपके पास आए ही इसीलिए हैं कि आप उनके रोग को दूर करें।
.
*खोटो खरो सभीत पालिये सो सनेह सनमान सों।* गीतावली ५/३३
भगवान श्रीराघवेन्द्र ने भी ठीक इसी प्रकार की बात कही --
*जौं नरहोइ चराचर द्रोही।*
*आवै सभय सरन तकि मोही।*
परन्तु इतना अवश्य होना चाहिए कि --
*तजि मद मोह कपट छल नाना।* ५/४८/३
अभिप्राय यह है कि अगर मद होगा, तो रोगी वैद्य के पास आवेगा ही नहीं। मोह होगा, तो उसी भूल को बारम्बार दुहरायेगा, कुपथ्य करेगा और स्वस्थ नहीं हो सकेगा। कपट तथा छल की वृत्ति होगी, तो रोगी अपना रोग वैद्य से छिपायेगा।
.
विभीषणजी सचमुच ही इतने सरल-हृदय है कि अपना परिचय देते हुए भी भगवान से कहते हैं --
*नाथ दशानन कर मैं भ्राता।*
*निसिचर बंस जनम सूरत्राता॥*
*सहज पापप्रिय तामस देहा।*
*जथा उलूकहि तम पर नेहा॥* ५/४५/७-८
उन्होंने अपने सारे दोष भगवान को बता दिये। भगवान पूछ सकते थे कि इतने दोष हैं, तो यहाँ आने का साहस कैसे किया ? क्या सोचकर चले आए ? विभीषणजी ने तुरन्त हनुमानजी की ओर संकेत कर दिया। बोले --
*श्रवण सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।* ५/४५
-- अब यह तो आप हनुमानजी से पूछिए कि मैं यहाँ क्यों आया हूँ। ये मुझे आप के विषय में क्या-क्या सुना आए हैं। 
.
सन्त ने ही मुझे यह बताया कि चाहे कैसा भी व्यक्ति क्यों न हो, *शरण आने पर प्रभु उसके सारे दोषों को दूर करते हैं।* बस, प्रभु विभीषण को हृदय से गले लगा लेते हैं, अपने शरण में स्वीकार कर लेते हैं। प्रभु की कृपा से विभीषण के जीवन के सारे दोष दूर हो जाते हैं।
.
इसका मूल आशय यह है कि *शरीर के संदर्भ में भी कुटिलता तथा छल-कपट की वृत्ति बड़ी घातक है, क्योंकि इससे रोग भीतर-ही-भीतर पनपता तथा फैलता रहता है; और इसी प्रकार मन के रोगों के सन्दर्भ में भी, जिनके हृदय में अपने दोषों को छिपाने की वृत्ति है, वह स्वयं को कष्ट भोगता ही है, साथ साथ दूसरों में भी उस रोग को फैलाता है। किन्तु जो व्यक्ति भगवान के सामने अपनी दोषों को बड़ी सरलता से निवेदन करते हुए प्रार्थना करता है, तो उसकी जीवन में भगवान की कृपा से भक्ति की सरलता आती है और उसके मन का यह कुष्ठरोग, दुष्टता और कुटिलता की वृत्ति दूर हो जाती है।*
-- परमपूज्यपाद् श्रीरामकिंकरजी महाराज 🌸🙏🏻

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें