#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*नदियाँ नीर उलंघ कर, दरिया पैली पार ।*
*दादू सुन्दरी सो भली, जाइ मिले भरतार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**शूरातन का अंग ७१**
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साहिब सन्मुख पाँव दे, ता सम कोई माँहिं ।
जन रज्जब जग पति मिलै, शिर साटै१ जग नाँहिं ॥५॥
परमात्मा के सनमुख पैर रखता है, उसके समान संसार में कोई नहीं है, कारण - जगत् में जगत् पति अंहकार रूप शिर के बदले१ में ही मिलते हैं और अंहकार रहित महान् ही होता है ।
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जैसे शूरा शीश ले, कोट्यों माँहिं जाय ।
त्यों रज्जब हरि नाम में, शिर दे शूर समाय ॥६॥
जैसे वीर अपने शिर को अपने हाथ से उतार कर कोटिन वीरों के दल में घुस जाता है, वैसे ही जो साधक शूर अपने अहंकार रूप शिर को नष्ट कर के हरी नाम जपता है वह हरि में ही समा जाता है ।
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महाशूर सुमिरण करै, शिर की आश उतारि ।
जन रज्जब ता संत को, प्रत्यक्ष मिलैं मुरारि ॥७॥
जो अपने मान प्रतिष्ठा रूप शिर को आशा हृदय से हटाकर हरि स्मरण है, वह मशहूर है उस संत को भगवान प्रत्यक्ष रूप से मिलते हैं ।
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हरि मारग मस्तक धरै, कोई इक पूरा दास ।
सो रज्जब रामहिं मिले, कदे न जाय निराश ॥८॥
हरि प्राप्ति के साधन मार्ग में कोई विरला ही अपने अहंकार रूप मस्तक को दूर धरता है, जो अहंकार को नष्ट करता है वही पूरा भक्त होता है तथा अवश्य राम से मिलता है कभी भी राम से मिलन में निराश नहीं होता ।
(क्रमशः)
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